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जो है। वह इसी क्षण तुम्हारे पास है। जो है, उसे तुम सदा से ले कर चलते रहे हो। जो है वह तुम्हारी गुदड़ी में छिपा है। वह हीरा तुम्हारी गुदड़ी में पड़ा है। तुम गुदड़ी देखते हो और भीख मांगते हो। तुम सोचते हो, हमारे पास क्या? और हीरा गुदड़ी में पड़ा है। तुम गदड़ी खोलो। और जिसे तुम खोजते थे, तुम चकित हो जाओगे, वही तो आश्चर्य है-जो जनक को आंदोलित कर दिया है। जनक कह रहे हैं, ' आश्चर्य! ऐसा मन होता है कि अपने को ही नमस्कार कर लूं कि अपने ही चरण छू लूं! हद हो गई, जो मिला ही था, उसे खोजता था! मैं तो परमेश्वरों का परमेश्वर हूं! मैं तो इस सारे जगत का सार हूं! मैं तो सम्राट हूं ही और भिखारी बना घूमता था
सम्राट होना हमारा स्वभाव है; भिखारी होना हमारी आदत। भिखारी होना हमारी भूल है। भूल को ठीक कर लेना है न कहीं खोजने जाना है, न कुछ खोजना है।
तो जब कोई व्यक्ति भोग से जागने लगता है तब खतरा खड़ा होता है। फिर भी वह मांगेगा वही।
तंग आ चुका हूं सिद्दते-जहदे-हयात से।
मुतरिब! शुरू कोई मोहब्बत का राग कर। -घबड़ा चुका हूं जीवन के संघर्ष से
तंग आ चुका हूं सिद्दते-जहदे-हयात से -बहुत हो गया यह संघर्ष अब और नहीं। अब हिम्मत न रही। अब टूट चुका हूं।
मुतरिब! शुरू कोई मोहब्बत का राग कर। -हे गायक, अब तू प्रेम का गीत गा!
मगर यह मामला क्या हुआ? अगर जिंदगी के राग से ऊब गये हो तो यह प्रेम का गीत? यह तो फिर जिंदगी का राग शुरू हुआ। अगर जिंदगी के संघर्ष से ऊब गए हो, तो फिर प्रेम की अभीप्सा, फिर जीवन की शुरुआत हो जाएगी।
हम बदलते हैं तो भी बदलते नहीं। हम मुड़ते हैं तो भी मुड़ते नहीं। हम ऊपर-ऊपर सब खेल खेल लेते हैं। हम लहरों -लहरों में तैरते रहते हैं, भीतर हम प्रवेश नहीं करते।
बे-गोता कैसे मिलता हमें गौहरे -मुराद
हम तैरते रहे सदा, लहरों के झाग पर। एक लहर से दूसरी लहर, दूसरी से तीसरी लहर। हम लहरों के झाग पर ही तैरते रहते हैं। तो वह जो मणि है, जिसे मिलकर मुक्ति मिल जाती है-कहें मुक्ता, कहें मणि-वह जो परम मणि है, वह तो गहरे डुबकी लगाने से मिलती है।
बे-गोता कैसे मिलता हमें गौहरे-मुराद वह जो हमारी सदा की आकांक्षाओं की आकांक्षा है, वह जो हमारी चाहतों की चाहत है, 'गौहरे-मुराद', जिसके अतिरिक्त हमने कभी कुछ नहीं चाहा है-हमने सब ढंग, सब रंग में उसी को चाहा है। कोई धन में खोजता है, कोई पद में खोजता है; लेकिन हम खोजते परमात्मा को ही हैं, पद