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से जो भी फलित होगा, घटित होगा, उसका श्रेय भी तुम्हारा है।
ऐसा मान कर जो व्यक्ति चलता है-वही सत्य का शोधक, खोजी।
खतरे तो हैं ही। जीवन जोखिम है। और जो जितने ज्यादा खतरे उठाता है, उतना ही जानने में समर्थ हो पाता है। जो लोग खतरे नहीं उठाते, वे मिट्टी के लौदे रह जाते हैं। उनके जीवन में कोई धार नहीं होती। उनके जीवन में कोई त्वरा नहीं होती। कोई चमक नहीं होती। उनके जीवन में प्रतिभा नहीं होती। तुम जा कर देख सकते हो, ऐसे मिट्टी के लौंदे तुम्हें आश्रमों में बैठे मिलेंगे, मंदिरों में बैठे मिलेंगे-घंटियां बजा रहे, पूजा कर रहे, कोई उपवास कर रहा--मिट्टी के लौंदे हैं! उन आंखों में तुम बिजलियां न पाओगे, और उनके प्राणों में तुम वह ऊर्जा न पाओगे, जो ऊर्जा सत्य को पाने के लिए अत्यंत अनिवार्य है। तुम उन्हें मुर्दा पाओगे। तुम उन्हें लाश की तरह पाओगे।
तो मैं तुमसे यह कहता हूं कि ऐसे तुम मत बन जाना। तुम अपनी निजता को बचाना और अपनी निजता को निखारना। और कितनी ही कठिनाई हो, कभी अपनी निजता को मत खोना। क्योंकि निजता ही तुम्हारी आत्मा है और उसी आत्मा में छिपा है सत्य।
बुद्ध ने अंतिम वचन कहा है आनंद को. 'अप्प दीवो भव!' अपना दीया स्वयं बन। आनंद रोने लगा था बुद्ध को जाता देख कर, बुद्ध चले। घबड़ा गया होगा। इन्हीं के पीछे चलता रहा चालीस- व्यालीस साल। पूरा जीवन दाव पर लगा दिया। इन्हीं की पीठ के सिवाए कुछ देखा नहीं। इन्हीं के पीछे चलता रहा, उठता रहा, बैठता रहा; आज ये चले, तो रोने लगा! स्वाभाविक था रोना। उसने कहा कि मैं तो अभी तक पहुंचा नहीं और आपके जाने की घड़ी आ गई। तो बुद्ध ने कहा मैंने तुझे कभी कहा ही नहीं कि मैं तुझे पहुंचा दूंगा। अपना दीया खुद बन और आनंद, शायद मेरे कारण बाधा पड़ती रही हो, तो अब मैं जा रहा हूं अब वह बाधा भी न रहेगी। अब तेरे सामने कोई पीठ न होगी; अब तेरे सामने खुला आकाश होगा।
और आश्चर्य की घटना है कि आनंद चौबीस घंटे बाद ही ज्ञान को उपलब्ध हुआ। व्यालीस साल में जो न हो सका, वह चौबीस घंटे में हुआ। यह बात तीर की तरह चुभ गई। यह बात तो उसकी समझ में आ गई कि आज बुद्ध चले, अब मैं अकेला रह गया।
अकेले तो हम सदा से हैं। किसी के पीछे चलो तो भी तुम अकेले हो, भ्रांति भर पैदा होती है कोई साथ है। इस अकेलेपन को तुम पहले से ही याद रखो। बुद्ध ने आनंद से अंत में कहा था, मैं अपने 'आनंदों' से प्रथम से कह रहा हूं कि तुम अपने दीये स्वयं बनो। तब कोई जरूरत नहीं कि मेरे जाने के बाद चौबीस घंटे में तुम ज्ञान को उपलब्ध होओ, तुम मेरे रहते चौबीस क्षण में ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हो। क्योंकि ज्ञान को उपलब्ध होने का कुल अर्थ इतना ही है कि यह जीवन मेरा है और मैं उत्तरदायी हूं। भूल होगी चूक होगी तो मैं जिम्मेवार हूं। मैं उत्तरदायित्व पूरा अपने हाथ में लेता हूं। मैं अपनी मालकियत अपने ऊपर घोषणा करता हूं।
__ इसलिए तो तुम संन्यासियों को मैं स्वामी कहता हूं। स्वामी का अर्थ है तुम्हारी मालकियत तुम्हारे हाथ में है। यह मैंने घोषणा कर दी कि अब तुम स्वामी हुए। अब तुम्हारा कोई भी स्वामी