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तो हम तो बैठ कर तपायेंगे-तो तुम नियंत्रण की तरह बीच में आ गये। तब जो हो रहा था, तुमने उसे होने न दिया। अगर तुम स्वभावत: होने देते, तो शरीर खुद ही उठता।
तुम इसे करके देखो। तुम इसमें जरा बह कर देखो। तुम चकित हो जाओगे। तुम धूप में बैठे हो, धूप लग रही है-तुम सिर्फ देखते रहो। तुम अचानक देखोगे शरीर उठ कर खड़ा हो गया। शरीर चला छाया की तरफ। तुम कहोगे कि हम न चलायेंगे तो कैसे चलेगा? तुम फिर गलत बात कह रहे हो। तुम्हें पता ही नहीं। तुमने कभी प्रयोग नहीं किया। भूख लगी शरीर चला रेफ्रिजरेटर की तरफ। तुम सिर्फ देख रहे हो। तुम न रोकना, न चलाना। यह परम सूत्र है. स्फुरणा से जीना। जो हो उसे होने देना। न शुभ-अशुभ का निर्णय करना। - तुम हो कौन? न पाप-पुण्य का हिसाब रखना। जो होता रहे, जो होता जाये उसके साथ बहते चले जाना।
'ब्रहमा से चींटी पर्यंत चार प्रकार के जीवों के समूह में ज्ञानी को ही इच्छा और अनिच्छा को रोकने में निश्चित सामर्थ्य है।'
__इच्छा और अनिच्छा दोनों ही ज्ञानी की रुक जाती हैं; भोग-त्याग, दोनों। इच्छा यानी भोग, अनिच्छा यानी त्याग। पसंद-नापसंद दोनों रुक जाती हैं। क्योंकि ज्ञानी कहता, हमारा चुनाव ही कुछ नहीं है। जो होगा, जो स्वभावत: होगा, हम उसे देखते रहेंगे। हम उसे होने देंगे। हम न उसे झुकायेंगे इस तरफ, न उस तरफ। जो स्वभावत: होगा, हम उसे होने देंगे।
यह बात तो सुनो। यह बात तो गुनो। इस बात को जरा तुम्हारे हृदय पर तो फैलने दो। जरा प्राणों में इस बात का प्रकाश तो पहुंचने दो। तुम पाओगे यह बड़ी मुक्तिदायी बात है। जो होगा होने देंगे। हम कुछ भी ना-नुच न करेंगे।
भोगी कहता है और भोग चाहिए। भूख खत्म हो गयी तो भी खाये चला जाता है। शरीर तो कहता है. रुको अब! शरीर की स्फुरणा कहती है : बस हो गया, अब मत खाओ। लेकिन भोगी और खाये चला जाता है।
भोजन में भोग नहीं है, जब शरीर कहता है नहीं और तुम खाये चले जाते हो, तब भोग है। फिर त्यागी है; शरीर तो कहता है भूख लगी है, और त्यागी कहता है, हमने उपवास किया है। ये पर्युषण चल रहे हैं। हम उपवासी हैं, हम नहीं खा सकते! मांगते रहो, चिल्लाते रहो।
शरीर को जब भूख लगी, वह तो नैसर्गिक है। अब तुम जो जबर्दस्ती कर रहे हो, वही अहंकार आ रहा है। जबर्दस्ती में अहंकार है। हिंसा में अहंकार है।
हिंसा दो तरह की है : भोगी की और त्यागी की। लोग मुझसे आ कर पूछते हैं : आप अपने संन्यासियों को त्याग क्यों नहीं सिखाते?. बडा मुश्किल है! मैं अपने संन्यासियों को सहजता सिखाता हूं न भोग न त्याग। उतना खाओ जितना सहज शरीर की स्फुरणा मांगती है। उतना सोओ जितनी सहज शरीर की स्फुरणा कहती है। उतना श्रम करो, उतना बोलो, उतना चुप रहो-जितना सहज होता है। असहज मत होने दो। जहां असहज हुए, वहीं संतुलन खोया, संन्यास गंवाया।
दो तरह से संन्यास गंवा सकते हो। संन्यास का अर्थ ही संतुलन है; सम्यक न्यास; ठीक-ठीक