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अनन्त निगोद जीवों की उत्पत्ति होती है, तो द्विन्द्रियादि असंख्य त्रस जीवों की उत्पत्ति तो स्वाभाविक होती ही है । तथा मांस मे तथा जरा जन्म और मृत्यु से भयंकर ऐसे इस भवसमुद्र से उद्वेग पाये हुए चितवाले मुनिओ के लिए (असाधुओं का आचरण) प्रमाण नही है । जिस कारण से दुःखरुपी दावानल की अग्नि से तप्त ऐसे जीवो को संसाररुपी अटवी में श्री जिनेश्वर की आज्ञा के अलावा अन्य कोई उपाय (प्रतीकार) नहीं है अन्य अभक्ष्यों की तरह अन्तर्मुहूर्त बादमें जीवोत्पत्ति होती है ऐसा नहीं है, लेकिन जीव से अलग करने पर तुरन्त ही जीवोत्पत्ति प्रारंभ हो जाती है। कहा है कि... ॥४१॥ मण वयण काय मणवय, मणतणु वयतणु तिजोगि सगसत्त; कर कारणुमइ दु ति जुई, तिकालि सीयाल-भंग-सयं ॥४२॥
मन-वचन-काया-मन-वचन-मन-काया-वचन-काया और (त्रिसंयोगी याने) मन वचन काया ये सात भांगे तीन योग के है । उसे कराना- करना-अनुमोदन करना (तथा द्विसंयोगी याने) करना-कराना, कराना अनुमोदना कराना,
और कराना अनुभोदन कराना तथा (त्रिसंयोगी १ भांगा याने) करना कराना-अनुभोदन करना ये सात भांगे त्रिकरण के होते हैं। (साथ गुनते-सात सप्तक के ४९ भांगे हैं) और उसे तीन काल से गुणने पर १४७ भांगे होते है । ॥४२॥ श्री पच्चक्खाण भाष्य