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पुनःपांचवे अधिकार में तीन भुवन के स्थापना जिन को वंदना की है । छठे अधिकार में विहरमान जिनेश्वरों को वंदना की है। सातवें अधिकार में श्रुतज्ञान को वंदना की है। आठवें अधिकार में सर्व सिद्ध भगवन्तों की स्तुति है। नौवें अधिकार में वर्तमान तीर्थ के अधिपति श्री वीरजिनेश्वर की स्तुति है । दसवें अधिकार में गिरनार की स्तुति है । अग्यारहवें अधिकार में अष्टापद आदि तीर्थों की स्तुति है ।
और बारहवें अधिकार में सम्यग्दृष्टि देवों का स्मरण किया गया है । (इनकी स्तुति नहीं) ॥४४॥ ॥४५॥ नव अहिगारा इह ललिअ वित्थरावित्तिमाइअणुसारा; तिन्नि सुय-परंपरया, बीओ दसमो इगारसमो ॥ ४६ ॥ __यहाँ ९ अधिकार श्री ललित विस्तरा नाम की वृत्ति के अनुसार हैं । और दूसरे, दसवें और अग्यारवें में ये तीन अधिकार श्रुतपरंपरा से चले आ रहे हैं ॥४६॥ आवस्सय-चुण्णीए, जं भणियं सेसया जहिच्छाए; तेणं उज्जिताइ वि, अहिगारा सुयमया चेव ॥ ४७ ॥ ___आवश्यक सूत्र की चूर्णिमें कहा है कि "शेष अधिकारों को स्वेच्छापूर्वक करने के लिए समझना" जिससे "उज्जित सेल"- विगेरे अधिकार भी श्रुत सम्मत है ॥४७॥ श्री चैत्यवंदन भाष्य
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