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पद नमु. आइग. पुरिसो. लोगु. अभय. धम्म. अप्प. जिण. सव्वं. है ॥३४॥ थोअव्व संपया ओह, इयरहेऊ-वओग तद्धेऊ; सविसेसुवओग सरूव हेउनियसम-फलय मुक्खे ॥ ३५ ॥
स्तोतव्य ओघ और इत्तर हेतु, उपयोग, तद्वेतु, सविशेष, उपयोग, स्वरूपहेतु, निज सम फलद, मोक्ष संपदा ॥३५॥ दो सगनउआ वन्ना, नवसंपय पय तित्तीस सक्कत्थए; चेइयथयट्ठ-संपय, तिचत्त-पय वन्न-दुसयगुणतीसा ॥३६॥ ___ शक्रस्तव में दो सौ सत्तानवे अक्षर, नौ संपदा, तेंतीस पद है । चैत्यस्तव में आठ संपदा, तियालीस पद, दो सौ उनतीस अक्षर है ॥३६॥ दु छ सग नव तियछ च्चउ-छप्पय चिइसंपया पया पढमा; अरिहं वंदण सद्धा, अन्न सुहुम एव जा ताव ॥ ३७ ॥
दो, छः, सात, नौ, तीन, छ:, चार, और छ: प्रकार के पदवाली चैत्यस्तव की संपदाएँ है । और अरिहं, वंदण. सद्धा. अन्न. सुहुम. एव. जा. ताव उसके आदि पद है ॥३७॥ अब्भुवगमो निमित्तं, हेउ इग बहु वयंत आगारा; आगंतुग आगारा, उस्सग्गावहि सरूवट्ठ ॥ ३८ ॥
भाष्यत्रयम्