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भावार्थ : तेजोलेश्या में नरकत्रिक आदि नौ के बिना, शुक्ल लेश्या में उद्योत चतुष्क व नरकत्रिक आदि बारह के बिना और पद्मलेश्या में नरकादि बारह के बिना बंध होता है ||२३||
सव्वगुण भव्वसन्निसु, ओहु अभव्वा असन्नि मिच्छिसमा; । सासणि असन्नि सन्निव्व, कम्मणभंगो अणाहारे ॥ २४ ॥
भावार्थ : भव्य और संज्ञी मार्गणा में सभी स्थानों में सामान्य से बंध होता है ।
अभव्य और असंज्ञी का बंधस्वामित्व मिथ्यात्व गुणस्थानक के समान है ।
सास्वादन गुणस्थानक में असंज्ञी का बंध-स्वामित्व संज्ञी के समान एवं अनाहारक मार्गणा में बंधस्वामित्व कार्मण योग के समान है ||२४||
तिसु दुसु सुक्काइगुणा, चउ सग तेरत्ति बंधसामित्तं ; । देविंदसूरि - रइअं, नेअं कम्मत्थयं सोउं ॥ २५ ॥
भावार्थ : पहली तीन लेश्याओं में पहले से चार, तेज और पद्म लेश्या में पहले से सात तथा शुक्ल लेश्या में तेरह गुणस्थानक होते हैं ।
इस प्रकार श्री देवेन्द्रसूरि द्वारा विरचित इस बंधस्वामित्व प्रकरण का ज्ञान 'कर्मस्त्व' नाम के दूसरे कर्मग्रंथ के अनुसार जानना चाहिए ||२५||
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कर्मग्रंथ