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में ग्यारह गुणस्थानक होते हैं । मिथ्यात्व त्रिक, देशविरति और सूक्ष्मसंपराय में अपना-अपना गुणस्थानक होता है । ___ आहारी मार्गणा में तेरह गुणस्थानक होते हैं । सर्वत्र अपने-अपने गुणस्थानकों के अनुसार ओघ बंध होता है ॥२०॥ परमुवसमि वटुंता, आउं न बंधंति तेण अजयगुणे। देवमणुआउ हीणो, देसाईसु पुण सुराउ विणा ॥ २१ ॥
भावार्थ : परंतु उपशम सम्यक्त्व में रहा हुआ जीव आयुष्य का बंध नहीं करता है, इस कारण से अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक में देवायु व मनुष्य आयु को छोड़कर अन्य प्रकृतियों का बंध होता है । तथा देशविरति आदि में देवायु के बिना अन्य स्वयोग्य प्रकृतियों का बंध होता है । ओहे अट्ठारसयं, आहारदुगूण-माइ लेसतिगे। तं तित्थोणं मिच्छे, साणाइसु सव्वहिं ओहो ॥ २२ ॥
भावार्थ : पहली तीन लेश्याओं में आहारकद्विक को छोड़कर ओघ-सामान्य से 118 प्रकृतियों का बंध होता है । उसमें तीर्थंकर नामकर्म को छोड़कर मिथ्यात्व में 117 का बंध और सास्वादन आदि सभी गुणस्थानों में ओघ बंध होता है ॥२२॥ तेउ निरयनवूणा, उज्जोअचउ निरयबार विणु सुक्का; । विणु निरयबार पम्हा, अजिणाहारा इमा मिच्छे ॥ २३ ॥ बंध स्वामित्व - तृतीय कर्मग्रंथ
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