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कुलमाष तथा अंजलि मात्र जल का सेवन करे उसे छः महिने के अन्तराल में अस्खलित और प्रतिपक्षी को भयंकर ऐसी महातेजोलेश्या उत्पन्न होवे |
पश्चात् कूर्मग्राम से विहार करके प्रभु गोशाला सहित सिद्धार्थपुर नामक उत्तम गांव की ओर चल दिये । मार्ग में तिल का पौधा जहाँ पड़ा था, वह प्रदेश आया । तब गोशाला ने कहा कि, हे स्वामी! आपने जो तिल का पौधा उगने का कहा था, वह तो उगा ही नहीं ? प्रभु ने कहा, उगा है और वह यहीं है । गोशाला ने वह बात मानी नहीं । बाद में उसने उस तिल के पौधे को लेकर उसकी फली को चीरा तो उसमें से ठीक सात दाने ही उगे हुए देखे । तब गोशाला बोला कि ‘शरीर का परावर्तन करके पुनः जंतु वहाँ ही उत्पन्न होते हैं।'
(गा. 109 से 121)
प्रभु ने तेजोलेश्या की जो विधि बताई थी, उसी प्रकार उसे साधने के लिए गोशाला प्रभु को छोड़कर श्रावस्ती नगरी में गया । वहाँ कुंभा की एक शाला में रह कर प्रभु के निर्देशानुसार उसने छः महिने पर्यन्त तप किया और तेजोलेश्या सिद्ध की। फिर उसकी परीक्षा करने के लिए वह कुए की मुंडेर पर गया। वहाँ कुपित होने के लिए किसी दासी का घड़ा कंकर मार कर फोड़ दिया। दासी उसे गालियां देने लगी। तब उसने तत्काल ही क्रोध करके उस पर तेजोलेश्या फेंकी । फलस्वरूप वह दासी बिजली गिरने से जले उसी प्रकार जलकर भस्म हो गई और उसे तेजोलेश्या की प्रतीति हो गई । पश्चात् कौतुक देखने की प्रीतिवाला गोशाला लोग से परिवृत्त होकर विहार कहने लगा ।
(गा. 122 से 133)
एक बार श्री पार्श्वनाथ प्रभु के छः शिष्य जिन्होंने चारित्र का त्याग कर दिया था और जो अष्टांग निमित्त के ज्ञान में पंडित थे, वे गोशाला को मिले । उनके शोण, कलिंद कर्णिकार, अच्छिद्र, अग्निवेशान और अर्जुन ऐसे नाम थे। उन्होंने सौहार्दभाव से गोशाला को अष्टांग निमित्त का ज्ञान बताया। “समान शीलवाले पुरुषों की मैत्री सद्य हो जाती हैं ।" इस प्रकार तेजोलेश्या एवं अष्टांग निमित्त का ज्ञान मिलने के गर्व से गोशाला 'मैं जिनेश्वर हूँ' ऐसा कहता हुआ पृथ्वीपर विचरण करने लगा ।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व)
(गा. 134 से 136 )
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