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प्रभु सिद्धार्थपुर से विहार करके वैशाली नगरी में पधारे। वहाँ प्रभु के पिता का मित्र शंख गणराज विशाल ने परिवार लेकर प्रभु के सम्मुख आकर पूजा की। वहाँ से विहार करके भगवंत ने वणिजक ग्राम की ओर कदम बढ़ाये। मार्ग में मंडिकीका नामक एक नदी को नाव द्वारा पार करने लगे। प्रभु नाव से उतरने लगे, तब नाविक ने तप्त रेतवाले तट पर नाव स्थित करके नदी पार करने का मूल्य मांगा। उस समय शंख गणराज का भाणजा चित्र नौका सैन्य लेकर उधर घूम रहा था, उसने प्रभु को रोकते हुए देखा। इससे उसने शीघ्र ही आकर उन नाविकों को तिरस्कार करके प्रभु को छुड़ाया। परम भक्ति से प्रभु की पूजा करके चित्र अपने नगर की ओर चल दिया और भगवंत भी वाणिजक ग्राम में पधारे। बाहर ही प्रभु प्रतिमा धारण करके रहे। वहाँ आनंद नामक श्रावक निवास करता था। जो कि निरन्तर छ? तप करके आतापना लेता था। उसे अवधिज्ञान होने से वह प्रभु को वंदन करने आया। प्रभु को वंदन करके अंजलिबद्ध होकर बोला-'हे भगवन्! आपने दुःसह परीषह एवं दारुण उपसर्ग सहन किये है। आपका तन और मन दोनों वज्रतुल्य है, कि इस प्रकार के परीषहों और उपसर्गों से भी भग्न नहीं हुए। हे प्रभु! अब आपको शीघ्र ही कैवल्यलाभ होने वाला है। इस प्रकार का कथन करके, पुनः पुनः प्रभु को वंदन करके वह आनंद श्रावक स्वस्थान चला गया। तत्पश्चात् कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रभु श्रावस्ती नगरी में पधारे। वहाँ दीक्षा के पश्चात् दशम चातुर्मास निर्गमन किया।
(गा. 137 से 148) चातुर्मास संपन्न होने पर नगर के बाहर पारणा करके प्रभु सानुयष्टिक गांव में आए। वहाँ प्रभु ने भद्रा प्रतिमा अंगीकार की। उस प्रतिमा में अशन त्यज कर पूर्वाभिमुख होकर एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर करके सम्पूर्ण दिन रहे। उस रात्रि को दक्षिणाभिमुख, दूसरी रात्रि को उत्तराभिमुख, इस प्रकार छ? तप द्वारा वह प्रतिमा पूर्ण की। उस प्रतिमा को पारे बिना ही प्रभु ने महाभद्रा प्रतिमा अंगीकार की एवं पूर्वादि दिशाओं के क्रम से चार अहोरात्र प्रतिमा पूर्ण की। इस प्रकार दशम (चार उपवास) द्वारा महाभद्रा प्रतिमा पूर्ण करके तुरंत ही बावीसम (दस उपवास) के तप द्वारा सर्वतोभद्रा प्रतिमा अंगीकार की। उस प्रतिमा की आराधना करते हुए प्रभु दसों दिशाओं में एक-एक अहोरात्र रहे। उसमें उर्ध्व
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)