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अपने
पुत्र
को पहचान कर वह वेश्या लज्जा से मुँह नीचा करके रूदन करने लगी। पश्चात् उसकी कुट्टिनी को बहुत सा द्रव्य देकर अपनी मां को छुड़ाकर और गांव में ले जाकर उसे धर्म मार्ग में स्थापित की।
(गा. 89 से 108)
उस वेशिका का पुत्र 'वैशिकायन' के नाम से पहचाना जाने लगा । वहाँ से आने के पश्चात् विषयों से उद्वेग होने के कारण उसने तुरंत ही तापस व्रत ग्रहण कर दिया। अपने शास्त्र के अध्ययन में तत्पर एवं स्वधर्म में कुशल वह तापस घूमता- घूमता श्री वीरप्रभु के आगमन से पहले कूर्म गांव में आया था। वह गांव के बाहर रहकर मध्याह्न के समय दोनों हाथ ऊँचा करके, सूर्यमंडल के सामने दृष्टि रखकर वटवृक्ष की बड़वाई की तरह लंबायमान जटा रखकर स्थिर था। स्वभाव से ही विनीत, दया, दाक्षिण्य से युक्त और समतावान ऐसा वह धर्मध्यान में तत्पर होकर मध्याह्न के समय आतापना लेता था । वह कृपानिधि तापस सूर्यकिरणों के ताप से पृथ्वी पर खिरी हुई जूओं की बीन-बीन कर पुनः अपने मस्तक में डाल रहा था । ऐसे वैशिकायन तापस को देखकर गोशाला प्रभु के पास से वहाँ आया और उसने पूछा कि, अरे तापस! तू क्या तत्त्व जानता है ? अथवा क्या तू जूं का शय्यातर है ? तू स्त्री या पुरुष ? यह भी समझ नहीं पड़ती ? ' वैशिकायन नाम से जूं मस्तक में डालता था । ऐसे वैशिकायन तापस को देखकर गोशाला प्रभु के पास से वहां आया और उसने पूछा कि, अरे तब उस तापस को कोप चढ़ा। तब उसने उसके ऊपर तेजोलेश्या छोड़ी। “अतिशय धर्षण से चंदन के काष्ट में से भी अग्नि उत्पन्न हो जाती है ।" ज्वालाओं से विकराल ऐसी तेजोलेश्या के भय से त्रस्त वह गोशाला दावानल से त्रस्त हस्ती जैसे नदी के पास जाता है, वैसे वह प्रभु के पास आ गया। गोशाला की रक्षा करने के लिए प्रभु ने शीतलेश्या फैंकी; इससे जल से अग्नि की भांति तजोलेश्या का शमन हो गया। प्रभु की ऐसी समृद्धि (शक्ति) देखकर वैशिकायन विस्मित हुआ। इससे वह श्री महावीर प्रभु के समीप आकर नम्रता से बोला कि 'हे भगवान् आपका ऐसा प्रभाव मुझे ज्ञात नहीं था, अतः मेरे इस विपरीत आचरण के लिए क्षमा करें। ऐसा कहकर वह तापस चला गया। उसके पश्चात् गोशाला ने प्रभु से पूछा कि 'हे भगवंत ! यह तेजोलेश्या लब्धि किस प्रकार प्राप्त होती ? प्रभु ने फरमाया कि 'जो मनुष्य नियम से छट्ठ की तपस्या करे और एक मुष्टि
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व)
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