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हेमन्त के तुषार से कमल के दो कोश के समान उस अग्नि से प्रभु के चरण श्यामवर्ण के हो गये। अग्नि शांत होने के पश्चात् प्रभु गोशाला सहित लांगल नामक गाँव में गए। वहाँ वासुदेव के मंदिर में प्रतिमा धारण करके रहे। उस गांव के बालक वहाँ क्रीड़ा कर रहे थे। उनको गोशाला प्रेत की तरह विकृत रूप करके चारों तरफ से डराने लगा। उसके भय से किसी के वस्त्र गिर गए, तो किन्हीं के नाक फूट गए, तो कोई चलते चलते गिर पड़े। इस प्रकार सभी बालक गांव की ओर भाग गए। तब उन बालकों के पिता वहां आए और गोशाला को विकृत रूपधारी देखकर बोले, 'अरे! हमारे बालकों को क्यों डराता है ? ऐसा कहकर उसे खूब जोर जोर से मारने लगे। उसी समय गाँव की वृद्धा वहाँ आई
और प्रभु को देखकर कहने लगी-अरे मूों! इसे छोड़ दो। यह तो देवार्य का सेवक हो, ऐसा लगता है। उस वृद्धा के कहने पर उसे छोड़ दिया। तब गोशाला ने प्रभु से कहा, 'स्वामी! अन्य लोग मुझे मारते हैं, फिर भी आप अद्यापि मेरी उपेक्षा क्यों करते हो? आप तो वज्र की तरह निष्ठुर लगते हो!' तब सिद्धार्थ ने कहा, 'तू जो मार खा रहा है, वह व्याधि की तरह अंग में उठे तेरे स्वभाव से ही खाता है। वहाँ से कायोत्सर्ग पारकर विहार करके प्रभु आवर्त नामक गांव में आए। वहाँ बलदेव के मंदिर में प्रतिमा वहन की। गोशाला वहाँ भी पूर्व की भांति आकर बालकों को डराने लगा। उन बालकों के पिता ने वहाँ आकर दुर्भद सांढ की तरह उसे कूट डाला। किंतु उनके जाने के पश्चात् फिरसे वह उन बालकों को डराने लगा। 'प्राणियों से प्राणांत तक भी प्रकृति छूटती नहीं।" क्रोधित होकर उन बालकों के पिता वहाँ आकर परस्पर कहने लगे कि “इस बिचारे बालकुटक को मारना ठीक नहीं, उसके स्वामी को ही मारो। कारण कि वह इसका निषेध क्यों नहीं करता? सेवक अपराध करे तो उसके स्वामी को दंडित करना, ऐसी मर्यादा है।" पश्चात् अपराधी होने पर भी श्वान की तरह गोशाला को छोड़कर उन दुर्बुद्धियों ने डंडे उठाए और वीर प्रभु के पास आये। इतने में वहाँ रहा हुआ अर्हन्त का भक्त कोई व्यंतर क्रोध से बलदेव की प्रतिमा में अधिष्ठित हुआ। इससे मानो प्रत्यक्ष बलदेव हो, वैसे वह बलदेव की प्रतिमा हल लेकर उनको सामने से मारने को आई। यह देखकर आशंका और विस्मित होकर सर्व ग्राम्यजन प्रभु के चरण कमल में गिर कर खमाने लगे और स्वयं को निंदित करने लगे।
(गा. 526 से 541)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)