________________
उस नगरी में पितृदत्त नामका एक गृहस्थ था। उसके श्री भद्रा नामकी प्रिया थी। वह मृतक पुत्रों का प्रसव करती थी। एक बार उसने शिवदत्त नाम के नैमेत्तिक को आदर से पूछा कि 'मेरी संतान किस प्रकार जीवित रहे ? उसने कहा, “भद्रे! जब तेरे मृत संतान जन्मे, तब उसके रुधिर युक्त मांस की दूध, घी एवं मघु के साथ मिलाकर खीर बनाना, पश्चात् धूल धूसरित पैर वाला कोई अच्छा भिक्षु आए, उसे दे देना। ऐसा करने से अवश्य ही तेरी संतान जीवित रहेगी। इससे तेरी प्रसूति का नाश नहीं होगा। परंतु जब वह भिक्षुक भोजन करके जावे तब तुमको शीध्र ही घर का द्वार बदल देना होगा, क्योंकि यदि बाद में कभी वह इसे जान जावे तो कोप से तुम्हारा घर जला नहीं डाले। संतान की अर्थवाली उस स्त्री ने जब गोशाला भिक्षा लेने गया, उसी दिन बालक का जन्म होने से पूर्वोक्त रीति से क्षीर बनाई। जब वह गोशाला उसके घर आया, तब भक्ति से वह पायसान्न उसे दिया। गोशाला उसे खाकर प्रभु के पास आया और उसकी बात कह सुनाई। सिद्धार्थ ने जब क्षीर संबंधी मूल बात उसे सुनाई, तब उसने तत्काल ही मुख में अंगुली डालकर वमन किया। उसमें बालक के नख आदि सूक्ष्म अवयव देखकर उसे बहुत ही क्रोध आया। इससे वह उस स्त्री का घर शोधने चला। किन्तु उसके घर को पहचान नहीं पाया। तब वह गोशाला बोला, 'यदि मेरे गुरु का तपतेज हो तो यह सारा प्रदेश जलकर खाक हो जाय।' सानिध्य में रहे व्यंतरों ने विचार किया कि 'प्रभु का माहात्म्य अन्यथा न हो।' ऐसा सोचकर उन्होंने सारा ही प्रदेश जला डाला।
(गा. 509 से 519) वहाँ से प्रस्थान करके प्रभु हरिद्रु गांव में गए। वहाँ गाँव के बाहर रहे हरिद्रु वृक्ष के नीचे प्रतिमा धारण करके रहे। उस समय पत्र की छाया रूप छत्रवाले उसी वृक्ष के नीचे श्रावस्ती नगरी में जा रहा कोई बड़ा सार्थ उतरा। शेर से भयभीत के समान सार्थ ने ठंडी से भयभीत होकर रात्रि में अग्नि प्रज्वलित की। प्रातःकाल उठकर वह सार्थ चलता बना, परंतु प्रमाद से उस अग्नि को बुझाया नहीं। वह अग्नि महावीर प्रभु के पास आ पहुँचा। तब भगवन्! यह अग्नि नजदीक आ गई इसलिए यहाँ से भाग जावें।' ऐसा बोलता हुआ गोशाला शीघ्र ही काकपक्षी की तरह वहाँ से अन्यत्र भाग गया। प्रभु ने उसका वचन सुना तो था फिर भी कर्मरूपी ईंधन को भस्म करने में ध्यान रूपी अग्नि के समान उस अग्नि को जानते हुए भी वहाँ ही स्थिर होकर खड़े रहे।
(गा. 520 से 525)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)