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उसका स्तंभ हो वैसे निष्कंप होकर वीर प्रभु कायोत्सर्ग में रहे। माघमहिने का समय था, दुःसह शीत व्याप्त था। जिस दिन प्रभु पधारे उस दिन पाखंडियों के उस देवालय में रात्रि में महोत्सव था। इसलिए पुत्रादि परिवार को लेकर वे सभी देवालय में एकत्रित हुए, पश्चात् नृत्य, गीत, गान करके जागरण करने लगे। यह देख गोशाला हास्य करते हुए बोला- 'अरे! ये पाखंडिजन कैसे हैं ? कि जिनकी स्त्रियाँ भी मद्यपान करके इस प्रकार नृत्य गीत गान कर रही है। यह सुनकर कोपायमान होकर उन्होंने उसे देवालय में से बाहर निकाल दिया। गोशाला सर्दी में हकार की तरह अंग संकुचित करता हुआ एवं गायक जिस प्रकार वीणा बजाता है वैसे दंतवीणा बजाता हुआ बाहर खड़ा रहा। कुछ समय पश्चात् उस पर अनुकंपा करके उसे पुनः अंदर दाखिल कर लिया। किन्तु उसकी ठंड दूर हो जाने पर वह पुनः पूर्व की भांति बोलने लगा, तो उसे पुनः बाहर निकाल दिया। फिर दया लाकर प्रवेश कराया। इस प्रकार कोप एवं कृपा करके उन्होंने उस गोशाला को तीन बार निकाला और अंदर लिया। जब चौथी बार गौशाला अंदर आया तब वह बोला कि, 'अरे पाखंडियों! अल्पबुद्धिवाले ऐसे तुम लोगों को सत्य कथन पर क्यों क्रोध आता है? तुम्हारे ऐसे दुष्ट चारित्र पर क्यों नहीं कुपित होते हो? यह सुनकर उसको कूटने के लिए युवान पाखंडियों तैयार हुए तब उनके वृद्धजन उनको रोकते हुए बोले-'यह महातपस्वी महात्मा देवार्य का कोई पीठधारी या उपासक दिखाई देता है, अतः इसके बोल को गिनना नहीं। भले ही स्वेच्छा से इसे बकवास करने दो। यदि तुम यह श्रवण नहीं कर सकते हो तो वाद्य बजाया करो। तब उन्होंने वैसा ही किया। अनुक्रम से सूर्योदय हुआ, तब वीरप्रभु वहाँ से प्रस्थान करके श्रावस्ती नगरी में आए, एवं नगर के बाहर उद्यान में कायोत्सर्ग धारण करके रहे।
___ (गा. 487 से 50 5) भोजन की वेला होने पर गौशाला ने प्रभु से कहा कि, 'भगवान्! भिक्षा लेने चलो, मनुष्य जन्म में सार-भूत एक भोजन ही है।' सिद्धार्थ ने पूर्व की भांति की कहा, 'अरे भद्र! आज उपवास है।' तब गोशाला ने पूछा कि, स्वामी! तो मेरा आज कैसा आहार होगा? सिद्धार्थ बोला,- 'आज तो तुझे नरमांस की भिक्षा मिलेगी। गोशाला बोला-'जहां मांस की गंध भी न हो, ऐसे स्थान पर ही मैं भिक्षा लूंगा।' ऐसा निश्चय करके वह श्रावस्ती में भिक्षाटन के लिए गया।
(गा. 506 से 508)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)