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गोशाला भी उनका तिरस्कार करके स्वेच्छा से जैसे तैसे बोलता हुआ प्रभु के पास आया।
(गा. 467 से 477) प्रभु वहाँ से विहार करके चोराक गांव में आये। वहाँ परचक्र के भय से चोर को शोधने वाले आरक्षक पुरूषों ने गोशाला सहित प्रभु को कायोत्सर्ग में रहे हुए देखा। उन्होंने पूछा कि, तुम कौन हौ? परंतु मौन के अभिग्रह वाले प्रभु तो कुछ भी बोले नहीं। “मुनि तो बधिर जैसे ही होते हैं।" उत्तर न मिलने से उसने सोचा कि, 'जरूर ये कोई उठाईगीर है, इसके लिए ही मौन है।' ऐसा सोचकर उन कर बुद्धिवाले पुरुषों ने गोशाला सहित प्रभु को पकड़ लिया और दोनों को डाकिनी की तरह बांधकर कुए में डाल दिया और घड़े की तरह बार-बार ऊँचा नीचा करने लगे। इसी समय सोमा और जयंति नामकी उत्पल नैमित्तिक की दोनों बहने जो कि पार्श्वनाथ प्रभु की शिष्या (उत्तम साध्वियाँ) हुई थी, वे गाँव में आई हुए थी। उन्होंने लोगों से सुना कि, 'अमुक स्वरूपवाले किन्ही दो पुरुषों को आरक्षक लोग कुए में डालकर ऊंचे नीचे करके पानी में डाल-निकाल कर पीड़ित कर रहे हैं। यह सुनकर उन्होंने सोचा कि, 'कदाच ये चरम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी न हो? यह विचार आते ही वे दोनों शीघ्र ही वहाँ आई, वहाँ तो प्रभु को ही ऐसी स्थिति में पाया। तो उन्होंने आरक्षकों को कहा कि, 'अरे मूर्यो! क्या तुम मरना चाहते हो? क्या तुम नहीं जानते कि ये सिद्धार्थ राजा के पुत्र महावीर है ? साध्वी के ऐसे वचन सुनकर भयभीत होकर प्रभु को मुक्त कर दिया और उनसे बार बार क्षमा याचना करने लगे। परंतु “महान् पुरुष कोप करते ही नहीं।' वे तो अपनी आत्मा को कहीं मलिन हो जाय, ऐसी शंका होने से क्षमा ही करते है।
(गा. 478 से 486) कुछ दिन वहाँ व्यतीत करके चतुर्थ चौमासा करने के लिए प्रभु पृष्टचंपा नगरी में पधारे। वहाँ चारमासक्षमण करके, विविध प्रकार की प्रतिमा धारण करके प्रभु चातुर्मास में वहाँ रहे। चातुर्मास के अंतिम दिन में कायोत्सर्ग पार कर वहाँ से निकलकर कृतमंगल नामक नगर में गये। उस नगर में दरिद्र स्थविर रूप से प्रख्यात आंरभी परिग्रह धारी और स्त्री संतानवाले कितनेक पाखंडी रहते थे। उनके पाडे के बीच में एक विशाल देवालय था। उसमें उनके कुलक्रम से आए किसी देवता की प्रतिमा थी। उस देवालय के एक कोने में मानो कि
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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