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किसी पर भी न गिरे, ऐसा सोचकर अपने बिल में मुंह रखकर वह सर्प समता रूपी अमृत को पीने लगा। प्रभु भी उस पर अनुकपा करके वहीं खड़े रहे।
__(गा. 248 से 269) “महान पुरुषों की प्रवृत्ति अन्य के उपकार के लिए ही होती है।'' भगवंत को उपद्रव रहित हुए देखकर सर्व ग्वाले और वत्सपालक विस्मित होकर शीघ्र ही वहाँ पर आए। और प्रतीति करने के लिए वृक्ष के पीछे छिप कर उस महात्मा सर्प को निश्चल हुआ देखकर उनको विश्वास हो गया। तब नजदीक आकर उस सर्प के शरीर को लकड़ियों से छूने लगे। तब भी उसे स्थिर देखकर गोपालको ने यह बात लोगों को कही, तब सभी लोग वहाँ आ गये एवं वीर प्रभु को तथा मरणोन्मुख ऐसे उस सर्प को वन्दन करने लगे। ग्वालों की कुछ स्त्रियाँ उस मार्ग से घी बेचने के लिए जाती थी। उन ग्वालिनों ने उस सांप के शरीर पर घी चुपड़ दिया। उस घी की सुगंध से वहाँ तीक्ष्णमुख वाली चींटियां आ गई और उस सर्प के कलेवर को छलनी (चालनी) जैसा कर दिया। 'मेरे पापकर्म के समक्ष इस पीड़ा की क्या गिनती है ?' ऐसा विचार करता हुआ वह सर्पराज उस दुःसह वेदना को भी सहन करने लगा। और 'ये बिचारी अल्पबल वाली चींटियाँ मेरे शरीर के दवाब से पीड़ित न हों' ऐसा सोच कर उस महाशय सर्प ने अपना अंग जरा भी हिलाया नहीं। इस प्रकार करुणा परिणाम वाला और भगवंत की दयामृत दृष्टि से सिंचित होता हुआ वह सर्प एक पक्ष (पंद्रह दिन) में मृत्यु प्राप्त कर सहस्रार देवलोक में देवता हुआ।
(गा. 270 से 279) कौशिक सर्प पर इस प्रकार महा उपकार करके वहाँ से विहार करके प्रभु उत्तरवाचाल नाम के गांव के समीप में आए। पक्षोपवास के अंत में पारणे के लिए गोचरी की गवेषणा करते हुए प्रभु नागसेन नामक गृहस्थ के घर गए। उस दिन उस गृहस्थ का इकलौता पुत्र जो कि बारह वर्ष से परदेश गया था, वह बादल बिना की वृष्टि की तरह अकस्मात् ही घर आया था, इससे नागसेन ने अपने घर में उत्सव किया था एवं अपने सर्व स्वजनों को भोजन के लिए आमंत्रित किया था। ऐसे समय में प्रभु वहाँ वहरने पधारे। वीरप्रभु को दूर से आते हुए देखकर नागसेन बहुत हर्षित हुए। इससे उसने भक्तिपूर्वक पयस् (दूध) से प्रभु को प्रतिलाभित किया। उस समय 'अहोदानं, अहोदानं' इस
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)