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व्याप्त हो गया था एवं झोंपड़िया पृथ्वी से मिल गई थी। इतने में अरण्य में आकर प्रभु यक्षमंडप में नासिका पर नेत्र को स्थिर करके कायोत्सर्ग में स्थिर रहे। कुछ देर बाद वह दृष्टिविष सर्प मुख में से कालरात्रि जैसी जिह्वा को बाहर निकालता हुआ अभिमान युक्त होकर घूमने निकाला। वन में आज्ञारेखा की भांति अपनी शरीर की रेखाएँ डालता चलता जा रहा था। इतने में उसने वीर प्रभु को देखा। तब 'अरे! मेरी अवज्ञा करने के लिये यह कौन मेरी जानकारी के बिना यहाँ निःशंक होकर घुस गया है ? और शंकु के जैसे स्थिर होकर खड़ा रहा है। इसलिए मैं इसे भस्म कर दूं।' इस प्रकार विचार करके क्रोध में धमधमाता वह सर्प अपनी फणाओं का विस्तार करने लगा। ज्वालामाला का वमन करती, लता वृक्षों को दहन करती, साथ ही स्फुरित फुकारों से भयंकर दृष्टि से प्रभु को देखने लगा। इससे प्रज्वलित जैसी उसकी दृष्टिज्वालाएं आकाश में से उल्का जैसे पर्वत पर गिरे वैसे प्रभु के शरीर पर गिरी। परन्तु महाप्रभाविक प्रभु के उपर वह कुछ भी असर नहीं कर सकी। क्योंकि 'महान् पवन भी मेरु को कंपायमान करने में समर्थ हो? अपनी तीव्र दृष्टि द्वारा भी जब प्रभु को कुछ भी हुआ नहीं तब ‘अभी कैसे यह काष्ठ की भांति दग्ध हुआ नहीं? ऐसा सोचकर विशेष रूप से क्रोध करके वह सूर्य के सामने देखदेखकर विशेष दृष्टिज्वाला छोड़ने लगा। तथापि ये ज्वालाएं भी प्रभु पर तो शीतल ज्वालाएं जैसी हो गई। तब उस सर्प ने प्रभु के चरणकमल पर डंस लिया। अपने विष की उग्रता से दुर्मद ऐसा वह ‘मेरे तीव्र विष द्वारा आक्रांत होकर अभी यह गिरेगा तो कहीं मुझे दबा न दे' इस इरादे से डस डस कर दूर हो रहा था। प्रभु के अंग पर जिस भी स्थान पर वह डसता वहाँ से उसका जहर प्रसर नहीं रहा था। मात्र गाय के दूध जैसी रुधिर की धारा वहाँ से झर रही थी। अनेक बार भी वैसे होने पर 'यह क्या? ऐसा विस्मित होकर वह प्रभु के सामने खड़ा रहा एवं क्षुब्ध होकर प्रभु के सामने देखने लगा। पश्चात् प्रभु के अतुलरूप को निरखते, प्रभु के कांत और सौम्य रूप के कारण उसके नेत्र स्तब्ध हो गये। जब वह कुछ उपशांत हो गया तब प्रभु बोले-'अरे चंडकौशिक! बुज्झ बुज्झ! मोह मत प्राप्त कर। भगवंत के ये वचन सुनकर उहापोह करते उस सर्प को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। तब प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर उसने अपने मन में अनशन अंगीकार करने का निर्णय किया। अनशन करके सर्व क्रिया से रहित हुए और उपशांत हुए उस सर्प पर प्रभु ने दृष्टि द्वारा सिंचन किया। तब भयंकर विषयुक्त मेरी दृष्टि
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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