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देवता में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्यव कर कनकखल नाम के स्थान में पांचसौ तपस्वियों के कुलपति की पत्नि से कौशिक नाम का पुत्र हुआ। वहाँ कौशिक गौत्र के कारण अन्य भी कौशिक तापस ही थे। उनमें वह तापस विशेष रूप से क्रोधित होने के कारण वह चंडकौशिक के नाम से प्रख्यात हुआ। पूर्व कुलपति यमराज के अतिथि होने पर यह चंडकौशिक कुलपति हुआ। उसे अपने वनखंड पर अत्यन्त मूर्छा थी। इससे वह रात दिन घूमा करता और किसी को भी उस वनखंड से पुष्प, फल, मूल या पत्र लेने नहीं देता। कभी भी कोई यदि उस वन में से सड़ा हुआ भी फल या पत्रादिक ग्रहण करता तो वह कुल्हाडी, यष्टि या ढेला लेकर मारने को दौड़ता। वहाँ के रहवासी तापसों को भी फलादिक लेने न देने से दुःखी ऐसे सब तापस जैसे लकड़ी पड़ते ही काक पक्षी भाग जाते वैसे ही दसों दिशाओं में भाग जाते। एक दिन वह चंडकौशिक वाटिका संबंधी कार्य के लिए बाहर गया था, इतने में कितनेक राजकुमार श्वेतांबी नगरी से शीघ्र ही वहाँ आकर उस वन को नष्ट भ्रष्ट करने लगे। जब कौशिक वापिस आया। तब गोपालकों ने उसे बताया कि देखो, यह कोई तुम्हारे वन को नष्ट कर रहा है। यह सुनकर हुतद्रव्य से अग्नि की भांति कौशिक क्रोध से प्रज्वलित हो गया। तत्काल वह अकुंठ धारवाली कुल्हाडी लेकर दौड़ा। उसे आता हुआ देखकर बाज पक्षी से दूसरे पक्षियों की तरह सभी राजकुमार तो भाग गये और वह कौशिक पैरों की स्खलना (फिसलने) के कारण यमराज के मुंह जैसे किसी गड्ढे में गिर पड़ा। गिरते ही उसकी फेंकी हुई ही वह तीक्ष्ण कुल्हाडी उस पर गिरी, फलस्वरूप उसके मस्तक के दो भाग हो गये। “कुकर्म का विपाक ऐसा ही होता है।" उससे मृत्यु होकर वह चंडकौशिक इसी वन में दृष्टिविष सर्प हुआ है।" तीव्रानुबंधी क्रोध भवांतर में भी साथ ही जाता है।"
(गा. 229 से 247) इस प्रकार उसके पूर्वभव का विचार करके ‘यह दृष्टिविष सर्प अवश्य ही प्रतिबोध देने योग्य है।' ऐसा सोचकर जगत्प्रभु वीर अपनी स्वयं की पीड़ा की अवगणना करके उस सरल मार्ग पर ही चल दिये। प्रभु ने जब जीर्ण अरण्य में प्रवेश किया, तब उसमें चरण संचार न होने से बालुका जैसी थी वैसी ही रही हुई थी। जलाशय में से बहती हुई नालियाँ पानी रहित थी। जीर्ण हुए वृक्ष सूख गए थे। जीर्ण पत्तों के समूह से समग्र भाग बिछ गया था। बिलों से बहुत सा भाग
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)