________________
प्रकार बोलते हुए देवताओं ने वहाँ वसुधारा आदि पांच दिव्य प्रगट किये। पश्चात् प्रभु पारणा करके श्वेतांबी नगरी की ओर चल दिये। वह नगरी जिनभक्त प्रदेशी राजा से विभूषित थी। प्रभु के आगमन के समाचार सुनते ही प्रदेशी राजा मानो दूसरा इंद्र हो वैसे नगरजन, अमात्यगण और अनेक राजाओं का परिवार लेकर प्रभु के सामने आया और भक्ति से प्रभु को वंदना की। तब राजा अपने नगर में गया एवं तप से श्रेष्ठ ऐसे प्रभु अनुक्रम से विहार करते हुए सुरभिपुर के समीप आये। वहाँ से मानो पृथ्वी की ओढनी हो और समुद्र ही प्रतिमा न हो, वैसी ऊँची-ऊँची तरंग वाली गंगानदी के पास आये। प्रभु गंगा को पार करना चाहते थे। सिद्धदंत नाम नाविक ने अपनी तैयार की हुई नौका में प्रभु एवं अन्य मुखाफिरों को बिठाया। नाविक ने दोनों ओर से पतवार चलाई तो मानो दो पंखों से युक्त पंखिणी की तरह वह नाव त्वरित गति से चलने लगी। उसी समय किनारे पर बैठा उलूक पक्षी बोल उठा। वह सुनकर नाव में स्थित शकुनशास्त्र का ज्ञाता क्षेमिल नामक नैमेत्तिक ने कहा कि, 'इस समय अपन कुशलक्षेम से पार नहीं उतरेगें। थोड़े ही समय में अपन सर्व को मरणांत कष्ट आने वाला है, परंतु इन महर्षि की महिमा से अपनी रक्षा होगी।' वह ऐसा बोल ही रहा था कि इतने में नाव अगाध जल में आ गई। वहाँ सुद्रष्ट्र नामक एक नागकुमार देव रहता था, उसने प्रभु को देखा। पूर्व जन्म का बैर याद करके उसने क्रोधित होकर विचार किया कि 'जब यह त्रिपृष्ट था, तब मैं सिंह था। इसने मुझे मारा था, उस समय मैं इसके देश से बहुत दूर था, मैंने कोई इसका अपराध किया नहीं था और मैं तो एक गुफा में छिपा हुआ था। परंतु अपनी भुजा के वीर्य के गर्व से और मात्र कौतुक करने की इच्छा से इसने आकर मुझे मार डाला। यह आज मेरी नजर में आया, वह बहुत अच्छा हुआ, अब मैं मेरा बैर लूं। “ऋण की भांति बैर प्राणियों को सैंकड़ों जन्म तक अनुसरण करता है।'' पूर्व भव का बैर लेने से जिसका जन्म कृतार्थ हुआ है, इसमें यदि मेरा पुनः मरण हो जाय तो भी मुझे कोई खेद नहीं होगा। ऐसा विचार करके वह सुदंष्ट्र देव क्रोध से भयंकर नेत्र करता हुआ वीर प्रभु के समीप आया और आकाश में ही स्थित रह कर उसने जोर से किल किलारव किया। पश्चात् बोला कि 'अरे तू कहाँ जाता है ? ऐसा कहकर प्रलयकाल के दावानल जैसी भयंकर संवर्तक जाति की महावायु विकुर्वित की। उसके प्रभाव से वृक्ष गिर पड़े और पर्वत कंपायमान होने लगे एवं जिनकी उर्मियाँ आकाश तक उड़ रही है, ऐसा गंगा
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)