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समुद्र तिर गये इससे आप इस भव समुद्र को तिर जावेंगे। आठवें स्वप्न में जो सूर्य देखा इससे आपको केवलज्ञान उत्पन्न होगा। नवें स्वप्न में जो आंतों से लिपटा हुआ मानुषोत्तर पर्वत देखा इससे आपका प्रतापयुक्त यश का विस्तार होगा एवं दसवें स्वप्न में जो मेरुगिरि के शिखर ऊपर चढ़े तो आप सिंहासन पर बैठकर धर्मोपदेश देंगे। इस प्रकार नौ स्वप्नों का फल तो मैं जानता हूँ, परंतु चौथे स्वप्न में जो दो मालाएँ देखी उसका फल मैं नहीं जानता हूँ। उस समय भगवंत ने फरमाया इन दो मालाओं का फल इस प्रकार है कि मैं गृहस्थ का और यति का दो प्रकार के धर्म का प्रतिपादन करूँगा।' पश्चात् उत्पल प्रभु को नमन करके अपने स्थान पर चला गया और अन्य जन भी मन में विस्मय प्राप्त करके अपने-अपने स्थान में चले गये।
(गा. 155 से 164) इधर आठ अर्धमासक्षमण रूप चातुर्मास व्यतीत करके प्रभु ने उस अस्थिक गाँव से अन्यत्र विहार किया। उस समय शूलपाणि यक्ष प्रभु के पीछे पीछे आकर नमस्कार करके कहने लगा कि 'हे नाथ! आप अपने सुख की अपेक्षा किये बिना मात्र मुझ पर अनुकंपा करने के लिये ही यहाँ पधारे थे। परन्तु मेरे जैसा कोई पापी नहीं कि जिसने आप पर यह अपकार किया और आपके जैसा कोई स्वामी नहीं कि जो इतना होने पर भी मेरे लिए उपकारी हुए। हे विश्व के उपकारी! यदि आपने यहाँ आकर मुझे बोध न दिया होता तो अवश्य ही आज मैंने नरकभूमि प्राप्त कर ली होती। इस प्रकार कहकर वह यक्ष भक्तिपूर्वक भगवंत को प्रणाम करके मदरहित हस्ति की भाँति शांत होकर वापिस लौट गया। दीक्षा के दिन से एक वर्ष बीत जाने पर प्रभु वापिस उसी मोराक गांव में आकर बाहर के उद्यान में प्रतिमा धारण करके रहे। उस समय उस गाँव में अच्छंदक नामक एक पाखंडी रहता था। वह मंत्र तंत्रादि से अपनी आजीविका चलाता था। उसके माहात्म्य को सिद्धार्थ व्यंतर सहन नहीं कर सका। इसलिए उसने वीर प्रभु की पूजा की अभिलाषा से उस सिद्धार्थ ने प्रभु के शरीर में प्रवेश किया। उस समय वहाँ से एक गोपाल जा रहा था, उसने उसे बुलाकर कहा 'तूने सौवीर (एक प्रकार की काँजी) सहित कंमकर (काग जाति का धान्य) का भोजन किया है और तू बैलों का रक्षण करने के लिए जा रहा है। यहाँ आते समय तूने एक सर्प देखा था, और आज तू स्वप्न में खूब रोया था। अरे गोप! सच कह मैंने जो कहा वह ठीक है ना ? गोपाल ने कहा – 'सब ठीक
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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