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है।” तथापि रानी ने अत्यन्त आग्रह किया तब राजा ने हार मांगना कबूल किया । "स्त्रियों का आग्रह मकोड़े की पकड़ से भी अधिक है ।"
(गा. 190 से 195)
अन्यदा कुणिक ने हल्ल विहल्ल के पास से सौभ्रातृत्व छोड़कर उन हार आदि चार वस्तुओं की माँग की। तब 'जैसी आपकी आज्ञा' कहकर वे दोनों अपने घर गए। पश्चात् वे दोनों बुद्धिजीवी भाई विचार करने लगे कि 'कुणिक का यह अभिप्राय अच्छा नहीं है, परन्तु इससे अपने को क्या प्रयोजन है । अपने को यहाँ से अन्यत्र चले जाना चाहिए । “पराक्रमियों का सर्वत्र श्रेय होता है" ऐसा निश्चय करके वे हल्ल विहल्ल अपना अंतःपुर और दिव्य हार आदि लेकर रात्रि में ही वहाँ से वैशाली की ओर प्रस्थान कर दिया । वैशाली में उनके मातामह (नाना ) थे। वहाँ उन्होंने स्नेह से आलिंगन करके उनका सत्कार किया एवं युवराज के समान अपने पास में रखा।
(गा. 196 से 201 )
प्रातः काल में कुणिक को जब विदित हुआ कि हल्ल विहल्ल तो धूर्त के समान उसे धोखा देकर वैशाली चले गए हैं । तब दाढी पर हाथ रखकर चिंतन करने लगा कि 'अहो! मेरे तो हस्ति आदि रत्न भी न रहे और दोनों भ्राता भी न रहे। स्त्री की प्रधानता से अर्थात् उसके कहे अनुसार वर्तन से तो मैं उभय भ्रष्ट हुआ। जो बना सो ठीक। परंतु अब ऐसा कष्ट प्राप्त होने पर भी यदि मैं उनको वापिस लौटा न लाऊँ, तो ऐसे पराभव को सहन करने वाले मुझ में और वणिक् में क्या फर्क रहा? ऐसा विचार करके किसी दूत को समझाकर वैशाली नगर में चेटक राजा के पास रत्न लेकर आए अपने भाईयों की माँग करने के लिए भेजा। वह दूत वैशाली नगर में पहुँच कर चेटक राजा की सभा में गया और चेटक राजा को प्रणाम करके आसन पर बैठकर सभ्यता पूर्वक बोला कि "हे राजन् ! यहाँ हल्ल विहल्ल कुमार गजादिक रत्न लेकर भाग आए है । उनको आप हमारे स्वामी कुणिक को सौंप दीजिए। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो आप राज्यभ्रष्ट हो जायेगे । एक कीलिका के लिए सम्पूर्ण देवालय तोड़ने जैसा करना आपको योग्य नहीं है।" चेटकराजा बोले कि "यदि अन्य कोई शरण में आया हो तो भी उसे तुझे सौंपता नहीं, और यह तो मेरा दोहित्र है, जो कि मुझ पर विश्वासु है और मुझे पुत्रवत प्रिय है, उसे मैं किस प्रकार सौंप सकता हूँ?” दूत बोला कि -
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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