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में रहने में अशक्त हो गया। तब मैं यहाँ से अन्यत्र शहर बसाऊँ' ऐसा विचार करके उसने उत्तम भूमि शोध के लिए वास्तुविद्या में चतुर पुरुषों को आदेश दिया। उन उत्तमवास्तुवेत्ताओं ने भूमि शोध के लिए भ्रमण करते हुए एक स्थान पर विशाल चंपक का वृक्ष देखा। उसे देखकर वे विचार करने लगे कि ऐसा वृक्ष किसी भी उद्यान में नहीं है, यहाँ कोई पानी की नीक भी नजर नहीं आ रही, साथ ही इसके नीचे क्यारी में जल भी नहीं है । इस उपरान्त भी यह ऐसा अद्भुत किस प्रकार हो गया होगा ? अहो ! उसकी शाखाए कितनी विशाल है ? पत्रलता कैसी अद्भुत है। नव पल्लव कैसे खिल हैं ? पुष्पों की सुगंध आ रही है ? छत्र का भी पराभव करे ऐसी कैसी सरस शीतल छाया है ? अहो ! इसके नीचे विश्राम करने की भी कैसी योग्यता है ? इसका सबकुछ कितना सुंदर है ? शोभा के स्थान स्वरूप यह चंपकवृक्ष जितना स्वभाव से ही रमणीय है, वैसा यहाँ यदि नगर बसाया जाय तो वह भी रमणीय ही होगा । ऐसा विचार करके उन्होंने राजा के समक्ष आकर कहा कि “जैसा वह चंपक वृक्ष शोभा दे रहा है, वैसा ही वहाँ नगर भी शोभनीक होगा, ऐसा मानो कोल मिलने पर विश्वास आता है, इसलिए वह स्थान नगर बसाने के योग्य है । “पश्चात् राजा ने चंपकवृक्ष के नामानुसार चंपा नगरी वहाँ अत्यन्त वेग से बसाली।" राजाओ को वचन से कार्य सिद्धि हो जाती है ।" तत्पश्चात् कुणिक अपने भ्राता गण के साथ चारों प्रकार का लश्कर बलवाहन आदि लेकर चंपापुरी में आकर पृथ्वी पर राज्य करने लगा ।
(गा. 178 से 189)
एक वक्त हल्ल और विहल्ल नामके अपने दोनों देवरों को सचेनक हाथी पर आरूढ़ होकर दिव्य कुंडलों से मंडित तथा दिव्य हार और दिव्यवस्त्र धारण करके अद्भुत शोभा के द्वारा मानों पृथ्वी पर देव अवतरित हुए हो, ऐसे उनको देखकर कुणिक राजा की स्त्री पद्मावती स्त्रीत्व के योग्य विचार करने लगी कि, ‘ऐसे दिव्य वस्त्र, हार, कुंडल और सेचनक हस्ति के बिना मेरे पति का राज्य नेत्र बिना का मुख सदृश है ।" तब उसने हल्ल विहल्ल के पास से दिव्य हार आदि लेने का अपने पति से आग्रह किया । तब कुणिक ने उसे कहा कि “हल्ल विल्ल को जो पिता ने दिया है, उसे लेना योग्य नहीं है । और फिर पिता के स्वर्गगमन के पश्चात् तो ये दोनों से मेरे द्वारा और अधिक प्रासाद के योग्य
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व)
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