SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ्राजिल बोला- 'अरे! मेरे जैसी पापी को धिक्कार है। यह तो बहुत खराब हुआ। मैंने बहुत अशिवकारी कार्य किया है। क्योंकि मेरे निमित्त से देवाधिदेव की प्रतिमा को गुप्त करके वे दुराशयी मिथ्यात्वी मेरे नाम से सूर्य रूप से मेरी पूजा करेंगे।' धरणेन्द्र बोले हे निष्पापी! तुम क्यों शोक कर रहे हो ? इस दुषम काल की लीला ही ऐसी हैं। पश्चात् नागकुमारों ने स्वप्नदर्शी के समान क्षणमात्र में जिस मार्ग से लाए थे, उसी मार्ग से वापिस भ्राजिल को उसके स्थानक पर ला दिया। (गा. 540 से 559) इधर वीतभय नगर में दासी प्रतिमा को बदल कर चली गई। उसके दूसरे दिन उदायन राजा नित्यकर्म में तत्पर होकर प्रातःकाल में देवालय में आए। प्रतिमा के सामने देखते ही कंठ में रही पुष्पमाला को ग्लानिसहित देखा। तत्काल उसने सोचा कि 'अवश्य ही यह प्रतिमा दूसरी है, असली नहीं है। क्योंकि उसके पुष्प तो दूसरे दिन भी मानो तत्काल के चूंटे हुए हो ऐसे लगते थे। यह क्या हुआ ? फिर मानो स्तंभ पर रही हुई पुतली हो वैसे जो यहाँ सदा स्थिर रहती थी, वह दासी देवदत्ता भी यहाँ नहीं दिखाई देती, उसका क्या कारण? विचार करने पर लगता है कि ग्रीष्मऋतु में मरुवासी पंथियों के समान मेरे सर्व हाथियों का मद भी नाश हो गया है। इससे ज्ञात होता है कि यहाँ अनिलवेग गंधहस्ती आया लगता है। उस अनिलवेग हाथी पर बैठकर यहाँ आकर चंडप्रद्योत राजा गत रात्रि को चोर के समान उस प्रतिमा का एवं देवदत्ता दासी का अपहरण करके ले गया है। ऐसा सोचकर तुरंत की उदायन राजा ने उस पर चढ़ाई करने की तैयारी की। मानो दूसरी जयभंभा हो वैसे अश्वों के खुरों के स्फालन से पृथ्वी को थर्राने लगे। दस मुकुटबुद्ध राजा भी उसके पीछे हो लिए। वे सर्व मिलकर ग्यारह रूद्र हो इस प्रकार महापराक्रम से सुशोभित होने लगे। वन में उदायन राजा के सैन्य पर सूर्य की तीष्ण किरण स्फुरायमान होने लगी। परस्पर स्फालन से और पृथ्वी पर गिरते हुए सैनिकों को तृषाक्रांत होने से उलूक के समान कुछ भी दिखाई नहीं दिया। तत्काल उदायन राजा ने प्रभावती देव का स्मरण किया। "व्यसन प्राप्त होने पर इष्ट देव को कौन याद नहीं करता?' स्मरण करते ही देव प्रगट हुआ और शीघ्र ही निर्मल जल के तीन सरोवर परिपूर्ण कर दिये। उसके साथ सैनिकों को भी हर्ष से भर दिया। उसका जलपान करके सैन्य स्वस्थ हुआ।" जल के बिना जीवन नहीं। तब प्रभावती देव स्वस्थान पर चला गया एवं उदायन राजा उज्जयिनी नगरी के समीप आ पहुँचा। अल्पसमय में उदायन 278 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy