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राजा और चंडप्रद्योत राजा के परस्पर दूत के मुख से रथसंग्राम करने की प्रतिज्ञा हुई। धनुषधारी उदायन राजा संग्राम में रथ पर आसीन हुआ और
अन्य रथवाद्य के साथ धनुष की टंकार का भी नाद किया। प्रद्योत को महसूस हुआ कि 'उदायन राजा रथ में अजेय है। अतः वह अनिलवेग हाथी पर बैठा। बलवान के सामने प्रतिज्ञा किस प्रकार रह सकती है।' उदायन राजा उसको गजारूढ़ हुआ देखकर बोला - अरे पापी! तू सत्यप्रतिज्ञ न रहा, तथापि जीवित नहीं रहने वाला।' ऐसा कहकर अपने रथ को वेग से गोलाकृति में फिराता हुआ वह महापराक्रमी उदायन राजा हंसता हंसता युद्ध करते के लिए उसके नजदीक जा पहुँचा। धनुर्धारियों में धुरंधर ऐसे उसने सुई की नोंक समान तीक्ष्ण बाणों से चारों ओर से अनिलवेग हाथी के पैर के तलियों को बींध दिया। जिससे घूमती शलाकाओं से भरे पात्र के मुख जैसे चरणों द्वारा वह हाथी चलने में असमर्थ हो गया एवं तत्काल ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब उदायन ने प्रद्योत को हाथी पर से नीचे गिरा कर अपनी यशराशि के तुल्य उसे हाथ से पकड़ कर बांध दिया। उस उज्जयिनीपति के ललाट पर 'दासीपति' ये अक्षर अपनी नवीन प्रशस्ति के समान उदायन राजा ने लिखाया।
(गा. 560 से 582) इस प्रकार दास की भांति अंकित करके वीतभय नगर का स्वामी अपनी दिव्यप्रतिमा लेने के लिए विदिशा में जहाँ रखी थी, वहाँ गया। वहाँ जाकर उस दिव्य प्रतिमा की पूजा करके नमन करके उसे लेने लगा, परंतु पर्वत की भांति वह किंचित मात्र भी चलायमान नहीं हुई। तब उदायन ने उसकी विशेष प्रकार के पूजन करके बोला कि, हे प्रभों! ऐसा क्या अभाग्य है कि आप पधारते नहीं हैं ? उसके प्रत्युत्तर में उस प्रतिमा का अधिष्ठायक देव प्रतिमा में प्रवेश करके बोला कि- “हे महाशय! तू शोक मत कर तेरा वीतभय नगर रजोवृष्टि से स्थल जैसा हो जाने वाला है, अतः मैं वहाँ नहीं आ रहा।" उनके उत्तर को सुनकर उदायन वापिस लौट आया। अपने नगर में वापिस लौटते समय अंतराल में प्रयाण को अवरुद्ध करने वाली वर्षाऋतु आई। तब उदायन राजा ने मार्ग में ही नगर तुल्य छावनी डाली। “जहाँ राजागण रहते हैं, वहाँ नगर बस ही जाता है।' दस मुकुटबद्ध राजा उसकी रक्षा के लिए उसके चारों ओर धूल का किला बनाकर रहे, इससे वह छावनी दशपुर नाम से प्रसिद्ध हो गई।
(गा. 583 से 589)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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