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को प्रत्य में रखकर पुरानी प्रतिमा को लेकर आ गई। राजा दासी सहित प्रतिमा को गजेन्द्र पर आसीन करके, स्वयं भी उस पर चढ़कर त्वरित गति उज्जयिनी में आ गए। उस समय मानो सन्मुख आ रही हो ऐसी उज्जयिनी नगर दिखाई दी।
(गा. 534 से 539) किसी समय विदिशापरी के निवासी भ्राजिल स्वामी नामक वणिक को विघ्नमाली देव से प्रकाशित गोशीर्ष चंदन की देवाधिदेव की वह प्रतिमा राजा
और कुब्जा को पूजन के लिए सौंपी।" उस विषयासक्त दंपती (चंडप्रद्योत और कुब्जा) को इतना भी बहुत है।" एक वक्त मानो शरीर धारी कोई तेजपुंज हो, वैसे हाथ में पूजन सामग्री लेकर स्थित हुए दो पुरुष भ्राजिल को दृष्टिगत हुए। नेत्रों को सुखदाता और जन्म से ही मित्र हों, वैसे उन दोनों को अवलोकित करके भ्राजिल ने पूछा कि 'तुम कौन हो?' वे बोले 'हम कंबल और संबल नामक पातालभवनवासी नागकुमार देव हैं। धरणेंद्र की आज्ञा से विद्युन्माली देव द्वारा अधिष्ठित इन देवाधिदेव की प्रतिमा की पूजन सामग्री लेकर पूजा करने आए हैं। इस नगरी के समीप विदिशा नदी की द्रह के मार्ग से और नित्य ही हंस के सदृश मज्जन एवं उन्मजन करते हैं अर्थात् आते जाते हैं।' भ्राजिल बोला हे देवों! आज मुझे मनुष्य भव में ही तुम्हारे पाताल के भवन बताओं क्योंकि वहाँ स्थित शाश्वती प्रतिमाओं के दर्शन करने का मेरा मनोरथ है, वह आज कृपा करके पूर्ण करो, देव दर्शन कभी वृथा नहीं होता।" देवों ने उसे स्वीकार किया। तब भ्राजिल ने जाने के उत्साह में अधूरी पूजा की। आधी शेष रखकर नदी के द्रह के मार्ग से वहाँ जाने को चल दिया। वहाँ जाकर उसने शाश्वती प्रतिमा की वंदना की। धरणेन्द्र ने संतुष्ट होकर कहा कि 'कुछ प्रसाद माँग ले। भ्राजिल बोला- “मेरा नाम सर्वत्र विख्यात हो जाय, ऐसा करो। "अपने नाम को अविचल करना यहाँ पुरुषों का पुरुषार्थ है।" तब धरणेन्द्र बोला - चंडप्रद्योत राजा तुम्हारे नाम से मानो देवनगर हो वैसा देवाधिदेव संबंधी एक नगर बसायेंगे। परंतु तुमने यहाँ आने के उत्साह में अर्ध पूजा की है, इससे यह प्रतिमा कितनेक काल तक गुप्त रीति से मिथ्यादृष्टि द्वारा पूजी जाएगी। वे उनकी नकल करके बाहर रखेंगे। और यह भ्राजिलस्वामी आदित्य है, ऐसा बोलेगे। सर्वजन 'भ्राजिलस्वामी सूर्य' इस नाम से वे कृत्रिम प्रतिमा की पूजा करेंगे।" अच्छी तरह से योजित दंभ निष्फल नहीं जाता।" यह सुनकर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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