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समृद्धि न होगी, इसलिए इष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए एक हजार सौनैया मांग लू।' पुनः विचार किया कि ‘एक हजार सौनैया से मेरे बच्चों के विवाहादि उत्सव कैसे होगा? अतः एक लाख सौनैया मांग लूं, क्योंकि मैं याचना करने में चतुर हूँ।' फिर सोचा कि एक लाख सोनैया से मेरे मित्र एवं सगे सम्बन्धियों साथ ही दीनजनों को उद्धार कैसे होगा? इसलिए एक करोड़ या हजार करोड़ सौनैया माँग लू।' ऐसा चिंतन करते करते किसी शुभ कर्म के उदय से उसे शुभ परिणाम वाली बुद्धि उत्पन्न हुई। 'बुद्धिः कर्मानुसारिणी होती है। वह पुनः सोचने लगा कि 'अहो! दो माषा सुवर्ण से मुझे जो संतोष था, वह संतोष अभी कोटि सेनैया की प्राप्ति के विचार से मानो भयभीत हो गया हो, ऐसे मुझे छोड़ दिया लगता है। ओह! मैं यहाँ विद्या प्राप्त करने के लिए आया उसमें मुझे यह दुर्व्यसन लग गया। वह सागर की ओर जाने की इच्छावाला हिमालयीय जैसा हो गया। मुझ जैसे अधम में गुरु का ज्ञानदान, उस स्थल में कमल उगाने जैसा है। क्योंकि मैंने अकुलीन के योग्य ऐसी एक नीच दासी का भी दासपना किया है। परंतु मुझे अब इन महा दुःखदायी विषयों से क्या ? ऐसा चिंतन मनन करते करते वह परम संवेग को प्राप्त हो गया और तत्काल ही उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होने स्वयं संबद्ध हुआ। शीघ्र ही उसने स्वयमेव केश लोच किया और देवताओं से उसने रजोहरण तथा मुखवस्त्रिका ग्रहण की, और वह राजा के पास आया। तब राजा ने पूछा 'कहो, क्या विचार किया ? पश्चात् उसने अपने मनोरथ का विस्तार से कथन करके कहा जैसे जैसे लाभ होता है वैसे वैसे लोभ होता जाता है अर्थात् लाभ द्वारा लोभ में वृद्धि होती है। देखो, दो माषा सुवर्ण से सोचा कार्य कोटि सुवर्ण से भी पूर्ण नहीं हुआ। राजा विस्मित होकर बोला कि “मैं तुमको कोटि सोनैया दूंगा, इसलिए व्रत छोड़कर भोगों को भोगो। क्योंकि व्रत के फल के लिए कोई जमानत नहीं है।' कपिल मुनि बोले कि, हे राजन्! अनर्थ का ही सर्जन करने वाला ऐसे द्रव्य की मुझे आवश्यकता नहीं है। मैं तो अब निर्ग्रन्थ हो गया हूँ। इसलिए हे भद्र! आपको धर्म का लाभ हो। इस प्रकार कहकर कपिल मुनि वहाँ से निकले और निर्मम निस्पृह साथ ही निरंहकारी होकर पृथ्वी पर विचरण करने लगे। दृढ़ता से व्रतों को पालन करते हुए उन महामुनि कपिल को छः महिने होने पर उज्ज्वल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।
(गा. 504 से 519)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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