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होता है।' वह दासी भी उस पर अनुरक्त हो गई । अनुक्रम से वे परस्पर कामक्रीड़ा करने लगे ।
(गा. 464 से 491)
एक बार अन्य पुरुष की इच्छुक नहीं होने से उस दासी ने एकान्त में आकर कपिल को कहा 'तुम्हीं मेरे प्राणनाथ हो परंतु तुम निर्धन हो, । इसलिए मेँ प्राणयात्रा के लिए अन्य पुरुष को चाहूँ । कपिल ने वह स्वीकार किया । एक बार नगर में दासियों के उत्सव का दिन आया । उस समय यह दासी पुष्प पत्र आदि की चिंता से खेद करने लगी। उसे दुःखी देखकर कपिल बोला- 'हे सुंदरी! ओस बिंदु से मुरझाई कमलिनी की भांति तू निस्तेज क्यों लगा रही है ? वह बोली 'कल दासियों का उत्सव है, और मेरे पास पुष्प पत्रादि कुछ भी नहीं है, इसलिए मैं दासियों के बीच उपहास का केन्द्र बनूंगी। अब न जाने मेरी क्या गति होगी ? उसके कथन से दुःख रूप व्यंतर के आवेश से कपिल विवश हो गया। और अधैर्यता के कारण मौन धारण करके बैठ गया । तो वह दासी बोली हे प्रिय! तुम खेद मत करो। इस नगर के धन नामका एक श्रेष्ठी है, प्रातः काल जो प्रथम उसे जगाता है, वह उसे दो माषा सुवर्ण देता है। इसलिए रात्रि व्यतीत हो जाने से पहले तुम उनके घर जाना और वहाँ मृदु स्वर में कल्याण राग गाना ।' कपिल ने वैसा करना स्वीकार कर लिया। उस रात्रि में घोर अंधकार था। उस समय उसने कपिल को श्रेष्ठी के घर भेजा। मनुष्यों का आवागमन न होने से कपिल जल्दी जल्दी चला जा रहा था । उसे चोर समझकर पुररक्षकों ने पकड़कर बांध दिया । प्रातः काल उसे प्रसेनजित राजा के पास ले गये। जब राजा ने उसे पूछा तब उसने दो माषा सुवर्ण के लिए जल्दी जाने की बात जैसी थी वैसी कह सुनाई। राजा को यह बात सुनकर उस पर बहुत दया आई और उसे बोले 'अरे द्विज! तेरी जो इच्छा हो सो मांग ले, मैं तुझे दूंगा। यह सुनकर वह बोला सोचकर मांगूगा । ऐसा कहकर कपिल वन में जाकर एकांत में एक चित्त से चिंतन करने लगा ।
(गा. 492 से 503)
'यदि दो मासा सुवर्ण ही मांगूगा तो उससे तो मात्र अन्न वस्त्रादिक ही प्राप्त हो सकते हैं, इसलिए राजा से सौ सौनैया मांग लू!' लोभ में पड़ने के बाद थोड़ी याचना क्यों की जाय ? पुनः सोचा कि “सौ सौनया से कोई वाहन आदि की
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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