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ने उस भयंकर हाथी को देखा। उसने तुरंत ही चार घड़ों में से एक मूत्र का घड़ा पृथ्वी पर पछाड़ कर फोड़ डाला एवं हाथी को आगे हंकार दिया। हथिननी का मूत्र सूंघने हेतु वह हाथी क्षणभर के लिए स्तंभित हो गया। अति कष्ट से आगे घकेला गया। वह पुनः उदयन के पीछे दौड़ा। दूसरी बार समीप आने पर उसने फिर से दूसरा मूत्र का घड़ा फोड दिया। तब वह हाथी फिर से अटक गया। इस प्रकार उदयन ने घड़ा फोड़ करके चार बार उस हाथी को अवरुद्ध कर दिया एवं सौ योजन पृथ्वी का उल्लंघन करके वह कौशांबी नगरी में घुस गया। श्रांत हुई उस हथिनी की शीघ्र ही मृत्यु हो गई। जब मूत्र को सूंघता हुआ, वह हाथी वहाँ आ पहुँचा। तब तक कौशांबीपति की सेना भी युद्ध करने के लिए सामने आ पहुँची। हाथी पर बैठे महावत अनलगिरि को वापिस लौटा कर जैसे आए वैसे पुनः उज्जयिनी लौट गए।
(गा. 252 से 260) तत्पश्चात् क्रोध में यमराज जैसे राजाचंडप्रद्योत सैन्य की तैयारी करने लगे। परंतु भक्त समान कुल मंत्रियों ने उसे युक्तिपूर्वक रोका और कहा कि 'हे राजन! आपको किसी योग्य वर को कन्या तो देनी ही थी ना, तो वत्सराज से अधिक योग्य कौन सा जमाता आपको मिलेगा? वासवदत्ता ने स्वयंवरा होकर उनको वरा है, तो हे स्वमिन्! उसके पुण्य से तो योग्य वर की प्राप्ति हो गई है, ऐसा ही मानो। इसलिए युद्ध की तैयारी मत करो। बल्कि उसे जमाता रूप मान्य कर लो। क्योंकि वासवदत्ता के कौमार्य का उसने हरण किया है। ऐसा मंत्रिगणों के समझाने पर राजा ने हर्ष से उसे जमातृरूप योग्य अनेक वस्तुएँ प्रेषित की।
(गा. 261 से 265) एक बार उज्जयिनी नगरी में भयंकर आग लगी तब प्रद्योत राजा ने उसकी शांति का उपाय अभयकुमार को पूछा। तब अभय बोला कि जैसे विष का उपाय विष है, उसी प्रकार अग्नि का उपाय अग्नि है। अतः अन्त्रय अग्नि प्रज्वलित करो तो यह अग्नि शांत हो जाएगी। तब राजा ने प्रसन्न होकर तीसरा वरदान लेने को कहा, वह भी अभयकुमार ने अमानत रूप से रखा।
(गा. 266 से 268) एक बार उज्जयिनी में महा मरकी फैल गई, उसकी शांति के लिए राजा ने अभयकुमार को पूछा। तब अभयकुमार बोला कि 'आप आपके अंतःपुर में
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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