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आओं, तब विभूषित हुई आपकी सर्व रानियों में से जो रानी आपकी दृष्टि से जीत ले उसका नाम मुझे बताना । राजा ने वैसा ही किया । उस समय शिवादेवी ने राजा को दृष्टि से जीत लिया। राजा ने यह बात अभयकुमार को बताई । अभयकुमार बोला कि - ये महारानी शिवादेवी अपने हाथों से कूर का बलिदान देकर भूतों की पूजा करे, जो भूत सियार के रूप में सामने आवे अथवा आकर बैठे, उसके मुख में देवी को अपने हाथ से कूरबलि प्रक्षेप करनी है ।" शिवादेवी ने उसके अनुसार ही किया । इसलिए तुरंत ही ( महामारी) (अशिव) की शांति हो गई। इससे प्रसन्न होकर राजा ने चौथा वरदान दिया । उस समय अभयकुमार ने चारों ही वरदान एक साथ मांगे 'आप अनलगिरि हाथी पर महावत होकर बैठे और पीछे मैं शिवा देवी के उत्संग में बैठूं । पश्चात् अग्निभीरु रथ का भंग करके उसकी काष्ट चिता में प्रवेश करें। ऐसे अभयकुमार द्वारा मांगे गए वरदान को देने में असमर्थ प्रद्योत राजा खेदित होकर अंजली बद्ध होकर अभयकुमार को छोड़ कर राजगृही की ओर विदा किया । जाते समय अभयकुमार ने प्रतिज्ञा पूर्वक कहा कि, 'आपने तो मुझे छलपूर्वक पकड़ कर यहाँ मंगवाया किन्तु मैं तो आपको घोले दिन में नगरी के मध्य में से मैं राजा हूँ ऐसा पुकारते आपका हरण करके ले जाऊंगा। अनुक्रम से वह राजगृही नगरी में आया और उस महामति ने बहुत सा समय निर्गमन किया।
(गा. 269 से 278)
अन्यदा अभयकुमार ने वणिक् का वेश धारण करके गणिका की दो रुपवती पुत्रियों को साथ लेकर अवंती नगरी में आया । राजमार्ग पर किराये से एक घर लेकर रहा । किसी समय मार्ग में जाते हुए प्रद्योत ने उन दोनों रमणियों को देखा एवं उन्होंने भी विलासपूर्वक प्रद्योत राजा को निरखा। दूसरे दिन उस रागी राजा ने उनके पास एक दूती भेजी । दूती ने आकर बहुत प्रकार से विनति करी, परंतु उन्होंने रोष से उनका तिरस्कार किया। दूसरे दिन भी उस आकर पुनः राजा के लिए आकर प्रार्थना की। उस समय उन्होंने कुछ धीरे से रोषपूर्वक अवज्ञा करके निकाल दिया। तीसरे दिन आकर पुनः उन्होंने खेद के साथ माँग की। तब वे बोली कि, 'यह हमारा सदाचारी भ्राता हमारी रक्षा करता है। वह आज से सातवें दिन बाहर गांव जाने वाले हैं, उस समय राजा को गुप्त रीति से यहाँ आना होगा, तो हमारा संग हो सकेगा। इधर अभयकुमार ने प्रद्योतराजा के जैसे ही अपने ही व्यक्ति को कृत्रिम पागल बना दिया और उसका नाम भी
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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