________________
से अभिषेक किया। जो जो रत्नवस्तु उनसे दूर थी, वे सर्व त्रिपृष्ट के पास आकर उनके आश्रित हो गई। उनमें गायकों में रत्नरूप कितने मधुर स्वर वाले गायक भी त्रिपृष्ठ के पास आए।
(गा. 170 से 174) एक वक्त वे गायक गा रहे थे और वासुदेव शयन कर रहे थे। उस समय उन्होंने अपने शय्यापालक को आज्ञा दी कि "ये गायक गा रहे हैं, मुझे नींद आ जाने पर इनकों बंद करवा देना।" शय्या पालक ने 'ठीक है' ऐसा कहा। त्रिपृष्ठ को तो नींद आ गई, परंतु उन गायकों के मधुर गायन में लुब्ध शय्यापालक ने उन गायकों को विदा नहीं किया। ऐसा करते करते प्रातः काल होने आया। तब वासुदेव जागृत हुए। उन गायकों को गाते हुए देखकर शय्या पालक को कहा कि, 'तूने गायकों को विदा क्यों नहीं किया?' वह बोला, “स्वामी! गायन के लोभ से'। ऐसा जवाब सुनकर वासुदेव को कोप चढ़ा। फलस्वरूप प्रातःकाल उसके कान में तप्त शीशा डलवाया जिससे उस शय्यापालक की उसी समय मृत्यु हो गई। इस कृत्य से त्रिपृष्ठ ने तीव्र निकाचित अशाता वेदनीय कर्म बाँधा। इसके अतिरिक्त उस भव में स्वामीत्व को पाकर अन्य भी बहुत कटु विपाक वाले उग्र कर्मों का बंध किया। प्रजापति राजा के उस त्रिपृष्ठ पुत्र ने हिंसादिक में अविरत रूप से महा आरंभ और परिग्रह में रचपच कर चौरासी लाख वर्ष निर्गमन किये। वहाँ से मृत्यूपरान्त वह सातवीं नरक में नारकी हुआ और उसके वियोग से अचल बलदेव दीक्षा लेकर उग्र तप साधना द्वारा कर्म खपाकर मोक्ष में गये।
(गा. 175 से 181) त्रिपृष्ठ का जीव नरक में से निकलकर केशरीसिंह हुआ। वहाँ से चौथी नरक में गया। इसी प्रकार वह तिर्यञ्च और मनुष्यादि गति में बहुत से भवों में भ्रमण करके एकदा मनुष्य जन्म में शुभ कर्मो का उपार्जन किया। फलतः वह अपरविदेह में मूकानगरी में धनंजय राजा की धारिणी रानी की कुक्षि से पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। चौदह स्वप्नों से सूचित चक्रवर्तीपद की समृद्धि से ज्ञापित संपूर्ण लक्षण युक्त उस पुत्र को धारिणी देवी ने जन्म दिया। माता-पिता ने प्रियमित्र अभिधान रखा। माता-पिता के मनोरथ के साथ अनुक्रम से वह बड़ा होने लगा। संसार से निर्वेद प्राप्त धनंजन राजा ने प्रियमित्र का राज्याभिषेक कर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
13