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अश्वग्रीव राजा को अब त्रिपृष्ठ पर शंका होने लगी। अतः कपट द्वारा उसको मार डालने की इच्छा से उसने एक दूत को समझा बुझाकर प्रजापति राजा के पास भेजा। वह दूत वहाँ जाकर बोला कि राजन्! आपके दोनों पुत्रों को अश्वग्रीव राजा के पास भोजो। हमारे स्वामी दोनों को भिन्न-भिन्न राज्य देंगे। प्रजापति बोले- "हे सुन्दर दूत! मेरे कुमारों की क्या आवश्यकता है ? मैं स्वयं ही स्वामी के पास आता हूँ। दूत ने पुनः कहा कि “यदि तुम कुमारों को नहीं भेजोगे, तो युद्ध करने के लिए तैयार हो जाना, बाद में कहा नहीं था ऐसा मत कहना।" दूत के ऐसा करने पर उस दूत को क्रोधित दोनों कुमारों ने खींच कर क्षण भर में तो नगर के बाहर निकाल दिया। दूत ने सब बात अश्वग्रीव राजा को कह सुनाई तो कुपित हुआ अश्वग्रीव राजा अग्नि जैसे प्रज्वलित हो गया।
(गा. 158 से 163) ___ हयग्रीव राजा, त्रिपृष्ठ तथा अचल युद्धेच्छा से अपने अपने सैन्य के साथ सज्ज होकर रथावर्तगिरि के पास आए। संवर्त मेघ की भांति परस्पर टकराते हुए दोनों पक्ष के सैनिक अन्दर-अन्दर युद्ध करने लगे। जब सैनिकों का क्षय होने लगा, तब अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठ दोनों सैन्य को रोक कर स्वयं रथी होकर युद्ध करने लगे। अश्वग्रीव के सभी अस्त्र निष्फल होने पर उसने शत्रु की ग्रीवा को छेदने के लिए लंपट ऐसा चक्र त्रिपृष्ठ के उपर फेंका। उस समय लोग हाहाकार करने लगे। वह चक्र जिस प्रकार अष्टापद जानवर पर्वत के शिखर पर से गिरे वैसे तुंब भाग से त्रिपृष्ठ के उरः स्थल पर जा गिरा। किन्तु वीर श्रेष्ठ त्रिपृष्ठ ने उस चक्र को हाथ में लेकर उसी के द्वारा कमलनाल की भांति लीलामात्र में अश्वग्रीव के कंठ को छेद डाला।
(गा. 164 से 169) उसी समय 'यह अचल और त्रिपृष्ठ पहले बलभद्र और वासुदेव हैं' ऐसी देवताओं ने पुष्पवृष्टि पूर्वक आघोषणा की। तत्काल सभी राजाओं ने आकर उनको प्रणाम किया। उन दोनों वीरों ने अपने पराक्रम से दक्षिण भरतार्द्ध को साध लिया। प्रथम वासुदेव ने अपनी भुजा के द्वारा-कोटिशिला को उठाकर छत्र की तरह लीलामात्र में मस्तक तक ऊँची की। सर्व भूचक्र को अपने पराक्रम से दबाकर वे पोतनपुर गये। वहाँ देवताओं और राजाओं ने अर्धचक्रीश्वर रूप
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)