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राम और वासुदेव अश्वरथ में बैठकर उस गुफा के समीप आए। वहाँ गुफा के पास लोगों ने कोलाहल किया। जिसे सुनकर उबासी से मुंह फाड़ता हुआ वह केशरीसिंह बाहर निकला। उसे देख 'यह सिंह पैदल है और मैं रथी हूँ' यह उचित नहीं। इसलिए हम दोनों का युद्ध समान नहीं कहा जा सकता। ऐसा सोच त्रिपृष्ठ हाथ में ढाल-तलवार लेकर रथ में से नीचे उतरा। पुनः उसने सोचा कि इस सिंह के दाढ़ और नख मात्र शस्त्र रूप हैं और मेरे पास तो ढाल और तलवार है, अतः ये भी उचित नहीं है। ऐसा सोच कर त्रिपृष्ठ कुमार ने ढाल
और तलवार भी छोड़ दिये। यह देखकर उस केशरीसिंह को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। इससे उसने सोचा कि 'प्रथम तो यह पुरुष अकेला मेरी गुफा के पास आया है, यह इसका धीठ पना है, दूसरा यह रथ में से नीचे उतरा यह इसका धीठपन, तीसरा इसने शस्त्र छोड़ दिया यह भी इसका धीठपन। इसलिए मदांध हाथी की तरह अति दुर्मद ऐसे त्रिपृष्ठ को मैं मार दूं। ऐसा सोचकर मुँह फाड़कर सिहों में श्रेष्ठ वह सिंह फाल भरकर त्रिपृष्ठ के उपर कूद पड़ा। तब त्रिपृष्ठ ने एक हाथ से ऊपर का और दूसरे हाथ से नीचे का होठ पकड़ कर जीर्ण वस्त्र की तरह उसे फाड़ डाला। तत्काल देवताओं ने वासुदेव पर पुष्प आभरण और वस्त्रों की वृष्टि की। लोग विस्मित होकर ‘साधु-साधु' ऐसे शब्द कहते हुए स्तुति करने लगे। उस समय 'अहो! इस छोटे बालक जैसे कुमार ने मुझे आज कैसे मारा? ऐसे अमर्ष से वह सिंह दो भाग में चिर जाने पर भी कांपने लगा। अतः उन वासुदेव के सारथि जो कि गौतम गणधर का जीव था, उन्होंने स्फुरणायमान होते हुए उस सिंह को कहा- 'अरे सिंह! जिस प्रकार तू पशुओं में सिंह है, उसी प्रकार ये त्रिपृष्ठ मनुष्यों में सिंह हैं, उन्होंने तुझे मारा है। तूं वृथा ही इसे अपमान क्यों मान रहा है ? कोई हीन पुरुष ने तुझे मारा नहीं है।'' इस प्रकार अमृत के समान उस सारथि की वाणी सुनकर प्रसन्न होकर वह सिंह मरण-शरण हो गया और चौथी नारकी में नारकी रूप उत्पन्न हुआ। उसका चर्म लेकर दोनों कुमार अपने नगर की ओर चल दिये और उन ग्रामीण लोगों को कहा को कहा कि- “तुम यह समाचार अश्वग्रीव राजा को दे देना और कहना कि अब तूं इच्छा के अनुरूप शाली खा और विश्वास से यहाँ रह। कारण कि तेरे हृदय में शल्यरूप जो केशरी था, उसे मार डाला है। इस प्रकार कहकर वे दोनों कुमार पोतनपुर चले गये। उन ग्रामीणों ने सर्व वृतांत अश्वग्रीव राजा को बताया।
(गा. 136 से 157)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)