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'तीर्थंकरों का' तब प्रभु बोले “अब अधैर्य मत रखना।' गुरु का स्नेह शिष्यों के ऊपर द्विदल के ऊपर के तृण के जैसा होता है, जो कि तत्काल दूर हो जाता है,
और गुरु के ऊपर शिष्य का हो वैसा तुम्हारा स्नेह तो ऊन की चटाई जैसा दृढ़ है। चिरकाल के संसर्ग से हमारे ऊपर तुम्हारा स्नेह बहुत ही दृढ़ हुआ है, इसीलिए तुम्हारा केवलज्ञान अटका हुआ है। उस स्नेह का जब अभाव होगा, तब प्रगट होगा।' पश्चात् प्रभु ने गौतम और अन्य को बोध करने के लिए 'द्रुम पत्रीय' अध्ययन की व्याख्या की।
(गा. 251 से 261) प्रभु के चरण की उपासना करने वाला अंबड नामका परिव्राजक छत्र और त्रिदंड हाथ में धारण करके वहां आया। तीन प्रदक्षिणा देकर प्रभु को नमन किया। भक्ति से रोमांचित होकर अंजलीबद्ध होकर इस प्रकार स्तुति करने लगा, “हे नाथ! मैं आपके चित्त में वर्तु ऐसी तो वार्ता भी दुर्लभ है, परंतु आप यदि मेरे चित्त में रहो तो मुझे अन्य किसी का प्रयोजन नहीं है। ठगने में तत्पर ऐसे लोग मृदुबुद्धि पुरुषों में कोई कोष से, कोई तुष्टि से तो कोई अनुग्रह से ठगते है। वे कहते हैं कि- जो प्रसन्न नहीं होते उनके पास फल किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? परंतु चिंतामणि आदि तो अचेतन हैं, तो क्या वे फल नहीं देते? हे वीतराग! आपकी सेवा की अपेक्षा भी आपकी आज्ञा का पालन करना, वह विशेष उत्तम है क्योंकि आपकी आज्ञा की आराधना तो मोक्ष का सर्जक है और विराधना सांसार का सृजन करती है। आपकी आज्ञा अनादि काल से हेय और उपादेय गोचर है, अर्थात् आस्रव सर्वथा हेय है और संवर सर्वथा उपादेय है, ऐसी आपकी आज्ञा है। ‘आस्रव संसार का तथा संवर मोक्ष को हेतु है। इस प्रकार आहती मुष्टि है अर्थात् मूल ज्ञान तो इतना ही है, शेष अन्य तो उसका विस्तार है। इस प्रकार आज्ञा की आराधना में तत्पर ऐसे अनंत जीवों ने मोक्ष को प्राप्त किया, अनंत प्राप्त कर रहे हैं, और अनंत प्राप्त करेंगे। चित्त की प्रसन्नता के द्वारा दीनता का त्याग करके मात्र आपकी आज्ञा का पालन करके भी प्राणी सर्वथा कर्म रूपी पिंजरे से मुक्त होते हैं।"
(गा. 262 से 271) इस प्रकार जगद्गुरु वीरप्रभु की स्तुति करके वह संन्यासी योग्य स्थान पर बैठकर देव की भांति अनिमेष दृष्टि से प्रभु की देशना सुनने लगा। देशना
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)