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उसे अत्यन्त तृषा का दाह हो गया। उस समय ‘यह पापी प्रतिज्ञाभ्रष्ट हुआ है' ऐसा जानकर उसके मंत्रियों ने उसकी चिकित्सा भी नहीं कराई। इससे वह अति व्यथित होकर सोचने लगा, यह रात्रि निर्गमन हो जाने पर प्रातः काल में इन सब अधिकारियों को कुटुम्ब सहित मरवा डालूंगा। इस प्रकार की कृष्णलेश्या से और महारौद्रध्यान से मरकर वह सातवीं नरक में अप्रतिष्ठान नरकावास में उत्पन्न हुआ।
(गा. 208 से 232) इधर पुंडरीकमुनि चिंतन करने लगे कि “सद्भाग्य से चिर-इच्छित यति धर्म मुझे प्राप्त हुआ है, तो अब इसे गुरु भगवन्त की साक्षी से ग्रहण करूं ऐसा सोचकर वे गुरुभगवन्त के पास चल दिये। गुरु के समक्ष व्रत ग्रहण करके उन्होंने अट्ठम तप का पारणा किया। परंतु नीरस, शीतल (ठंडा) रुक्ष (लूखा) आहार लेने से, साथ ही गुरु के पास आने की जल्दी जल्दी में, उनके कोमल चरणों में से रुधिर निकलने से बहुत कठिनाई से चलकर गांव के मध्य उपाश्रय में आकर खेदित होकर घास के संथारे पर सो गये। दीक्षा ले लेने पर भी 'मैं गुरु के पास जाकर कब दीक्षा लूं? ऐसा चिंतन करते हुए उसी रात्रि में आराधना करके शुभध्यान से परायण के पुष्ट अंग में ही मृत्यु हो जाने से वे सर्वार्थ सिद्ध विमान में उत्पन्न हुए।
(गा. 233 से 237) इसलिए हे सभाजनों! तपस्वियों को कृशता हो या पुष्टता हो इसमें कुछ प्रमाण नहीं है। शुभध्यान ही परम पुरुषार्थ का कारणभूत है। इस प्रकार गौतमस्वामी कथित पुंडरीक अध्ययन का समीप में बैठे वैश्रमण के सामानिक देव ने एक निष्ठा से श्रवण किया एवं सम्यक्त्व उपार्जन किया। गौतमस्वामी ने उसका अभिप्राय जान लिया। ऐसा जानकर वह भी हर्षित होता हुआ अपने स्थान की ओर चला गया।
(गा. 238 से 240) देशना के पश्चात् शेष रात्रि वहाँ व्यतीत करके गौतम स्वामी प्रातः काल उस पर्वत से नीचे उतरने लगे। तब राह देखते हुए उन तापसों ने उनको देखा। तापसों ने उनके पास आकर प्रणाम करके कहा कि, 'हे तपोनिधि महात्मा! हम
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)