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पालन करके राज्य कर और यौवन व्यातीत हो जाने के पश्चात् दीक्षा लेना । ऐसा करना सर्व प्रकार से योग्य है।” कंडरीक बोला- भाई! यह सत्य है । परंतु मैं जो बोला वह मुझे पालन करना ही चाहिए। इसलिए मैं तो अवश्य ही दीक्षा लूंगा । ऐसा कहकर कंडरीक ने दीक्षा ले ली एवं पुंडरीक को मंत्रियों ने व्रत लेने से रोक लिया, इसलिए वह भावयति होकर घर में ही रहा ।
(गा. 202 से 207)
कंडरीक मुनि विविध प्रकार के तप से कायक्लेश करते एवं समाचारी की विधिवत् परिपालना करने से साधुओं को प्रिय पात्र हो गये। एक वक्त वसंत का समय आने पर चारित्रावरणीय कर्म के उदय से महर्षि कंडरीक का मन चलायमान हो गया। उन्होंने विचार किया कि 'मुझे अब दीक्षा से क्या ? मेरा भाई जो पूर्व में मुझे राज्य देना चाह रहा था, वह अब मैं ग्रहण करूंगा। ऐसा विचार करके वह भग्नचित्त से शीघ्र ही पुंडरीकिणी नगरी में आया और उसके उद्यान में एक वृक्ष के नीचे हरे पत्र आदि के शीतल संथारे पर लोटने लगा । अपनी उपाधि को वृक्ष पर लटका दी । उद्यान पालक के द्वारा अपने आने के समाचार राजा को भेज दिये । राजा ने अपने प्रधान के साथ आकर वंदना की । वृक्ष पर अकरण लटकाकर वनस्पति का संथारा करके पड़ा हुआ । उसे देखकर 'यह मुनिजीवन से निर्वेद पाया हुआ लगता है, ऐसा सोचकर पुंडरीक राजा अपने मंत्रियों से बोला- 'अरे भाईयों! तुमको याद है क्या ? जब इसने बालपने में साहस से व्रत ग्रहण किया, तब मैंने उसे रोका था । ऐसा कहकर पुंडरीक ने उसे इच्छित राज्य पर बिठाया, राज्यचिह्न अर्पित किये एवं स्वयं ने उसके यतिलिंग को ग्रहण करके शुद्ध बुद्धि से दीक्षा लेकर वहाँ से विहार किया। इधर इसने अन्न के लिए रंक की भांति व्रत भग्न किया ऐसा कहकर सेवक लोग कंडरीक का उपहास करने लगे। इससे वह हृदय में अत्यन्त कोपायमान होता । परंतु उसने सोचा कि, 'प्रथम मैं अच्छा अच्छा भोजन कर लूं, पश्चात् इस उपवास करने वालों को वध आदि का दंड दूंगा ऐसा सोचकर वह राजमहल में गया। पश्चात् प्रातः काल में जैसे युवा कपोत खाते हैं, उस भांति उसने जघन्य, माध्यम उत्कृष्ट इस प्रकार तीन प्रकार का आकंठ आहार किया एवं रात्रि में विषयभोग के लिए जागरण किया। रात्रिजागरण से एवं अति आहार के दुर्जरपने से उसे विचिका हो गई, इससे उसे बहुत ही अरति उत्पन्न हो गई । पवन से पूरित धामण के जैसे उसका उदर फूल गया, पवन का रोध हो जाने से
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व )
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