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अंधकूप में भी मृत्तिका के पांच सौ पाड़े बनाकर हनन किया है।' शीघ्र ही श्रेणिक ने वहाँ जाकर देखा तो वैसा ही दिखाई दिया। तब उसे बहुत ही उद्वेग हुआ कि, मेरे पूर्व कर्म को धिक्कार है, ऐसे दुष्कर्म के योग से भगवंत की वाणी अन्यथा नहीं होगी।
(गा. 158 से 165) सुरासुरों से सेवित श्री वीर प्रभु वहाँ से विहार करके परिवार के साथ पृष्टचंपा नगरी में पधारे। वहाँ साल एवं महासाल नामक ये दोनों बंधु त्रिजगत् बंधु श्री वीरप्रभु को वंदन करने के लिए आए। प्रभु की देशना सुनकर वे दोनों प्रतिबोध को प्राप्त हुए। तब यशोमती और पिठर का गागली नामका पुत्र कि जो कि उनका भाणजा (भागिनेय) था, उसका राज्याभिषेक किया और उन दोनों ने संसार से विरक्त होकर श्री वीर प्रभु के चरण कमलों मे जाकर दीक्षा ली। भगवंत श्री वीरप्रभु कालांतर में विहार करते हुए परिवार से परिवृत होकर चौंतीस अतिश्य सहित चंपापुरी में पधारे। प्रभु की आज्ञा लेकर गौतम स्वामी साल और महासाल मुनि के साथ पृष्टचंपा नगरी में गये। वहां गागली राजा ने भक्ति से गौतम गणधर को वंदना की। साथ ही उसके माता-पिता और अन्य मंत्री आदि पौरजनों ने भी उनको वंदना की। तत्पश्चात् देवताओं द्वारा रचित सुवर्णकमल पर आसीन होकर चतुर्ज्ञानी इंद्रभूति गणधर ने धर्मदेशना दी जिसे सुनकर गागली प्रतिबोध को प्राप्त हुआ, तब अपने पुत्र को राज्य पर बिठाकर अपने माता पिता के साथ गौतमगणधर के पास दीक्षा ली। उन मुनियों एवं साल महासाल से परिवृत होकर गौतम गणधर चंपानगरी में प्रभु को वंदन करने के लिए आए। गौतम स्वामी का अनुगमन करते हुए मार्ग में शुभ भावना भाते हुए उन पांचों को ही केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। सर्व चंपा पुरी में आए। उन्होंने प्रभु को प्रदक्षिणा दी और गौतम स्वामी को नमन किया। तीर्थंकर प्रभु को नमन करके के पांचों केवली पर्षदा की ओर चल दिये। गौतम ने कहा कि प्रभु को वंदना करो। तब प्रभु ने कहा कि, 'गौतम! केवली की आशातना मत करो। तत्काल गौतम गणधर ने मिथ्या दुष्कृत देकर उनको खमाया।
(गा. 166 से 179) पश्चात् गौतम खेदित होते हुए चिंतन करने लगे कि क्या मुझे केवल ज्ञान उत्पन्न नहीं होगा? क्या मैं इस भव में सिद्ध नहीं होऊंगा? ऐसा विचार करते हैं
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)