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निवारण करके वह स्वगृह की ओर चला। आगे जाने पर एक साध्वी को सगर्भा बताई। शासन भक्त उस राजा ने उसे अपने गृह में गुप्त रूप से रखी। श्रेणिक का ऐसा श्रद्धायुक्त कार्य देखकर वह दर्दुरांक देव प्रसन्न हो गया और प्रत्यक्ष होकर बोला कि, “हे राजन्! शाबाश है, तुमको अपने स्थान से पर्वत के समान समकित से कोई भी चलित नहीं कर सकता। हे नरेश्वर! इंद्र ने अपनी सभा मैं जैसी तुम्हारी प्रशंसा की थी, वैसे ही तुम दिखाई दिये हो। ऐसे पुरुष मिथ्यावचन नहीं बोलते ?' इस प्रकार कहकर उसने दिन में नक्षत्रों की श्रेणी रची हो वैसा एक सुन्दर हार तथा दो गोले श्रेणिक राजा को दिये और कहा कि जो इस टूटे हुए हार को जोड़ेगा, वह मृत्यु को प्राप्त करेगा। वह देव स्वप्नदृष्ट की भांति शीघ्र ही अंतर्ध्यान हो गया।
(गा. 147 से 153) श्रेणिक राजा ने हर्ष से वह दिव्य मनोहर हार चेल्लणा को दिया और दोनों गोल्लक नंदा देवी को दिये। यह देख ‘मैं ऐसे तुच्छ दान के योग्य हुई' ऐसा ईर्ष्यावश नंदा ने उन दोनों गोलों को स्तंभ से टकरा कर फोड़ डाले। तब एक गोले में से चन्द्र के जैसे निर्मल दो कुंडल और दूसरे में से देदीप्यमान रेशमी दो वस्त्र निकले। नंदा ने उन दिव्य वस्तुओं को आनंद से ग्रहण किया। “महान जनों को बादल बिना वृष्टि जैसे अचिंतित लाभ हो जाते हैं।"
(गा. 154 से 157) राजा ने उस कपिला ब्राह्मणी को बुलाकर उससे मांग की कि, 'हे भद्रे! तू साधुओं को श्रद्धा से भिक्षा दे, मैं तुझे अपार धनराशि देकर निहाल कर दूंगा।' कपिला बोली कि, 'कभी मुझे सम्पूर्ण सुवर्णमय करो या मुझे मार डालो, तो भी मैं यह अकृत्य कभी नहीं करूँगी। तब राजा ने कालसौरिक को बुलाकर कहा कि यदि तु कसाई का कार्य छोड़ दे तो तुझे बहुत सा द्रव्य दूंगा, क्योंकि तू धन के लोभ से ही कसाई बना है। कालसौरिक बोला कि इस कसाई के कार्य में क्या दोष है ? जिससे अनेक मनुष्य जीते हैं ऐसे कसाई के धंधे को मैं कदापि नहीं छोडूंगा 'तब कसाई का व्यापार कैसे करेगा? ऐसा कहकर राजा ने उसे अंधकूप में एक रात-दिन के लिए डाल दिया। पश्चात् राजा श्रेणिक ने भगवंत के सम्मुख जाकर कहा कि, 'हे स्वामी! मैंने कालसौरिक को एक अहोरात्र तक कसाई का कार्य छुडा दिया है।' तब सर्वज्ञ प्रभु बोले कि, हे राजन्! उसने
त्रिषष्टिशलाकापरुषचरित (दशम पर्व)
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