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तुम्हारी दृष्टि के मोह से तुमको सर्व अन्य ही दिखाई दिया। श्रेणिक ने पूछा- 'हे नाथ! आपको छींक आने पर अमांगलिक बोला और अन्य को छींक आने पर मांगलिक बोला, उसका क्या कारण है ? प्रभु ने कहा कि “आप अब तक संसार में क्यों रहे हो? शीघ्र मोक्ष में जाओ, यह सोचकर मुझे उसने कहा 'मृत्यु प्राप्त करो।' हे नरकेशरी राजा! तुझे कहा कि 'जीओ' उसका आशय ऐसा है कि तुझे इस जीवन में सुख है, कारण कि मृत्यु के पश्चात् तेरी नरक गति होने वाली है और अभयकुमार को कहा कि 'जीओ या मरो' तो आशय यह है कि यह जीवित रहेगा तो भी धर्म करता रहेगा और मरणोपरान्त अनुत्तर विमान में जाएगा। कालसौरिक कसाई को जो कहा कि ‘जी भी मत और मर भी मत' तो उसका कारण यह है कि यह जीवेगा तो भी पापकर्म ही करेगा और मरकर भी सातवीं नरक में जाएगा, इसलिए ऐसा कहा था।"
(गा. 131 से 138) इस प्रकार स्पष्टता सुनकर श्रेणिक ने भगवंत को नमन करके कहा कि, 'हे प्रभो! आप जैसे जगत्पति मेरे स्वामी होने पर भी मेरी नरक गति कैसे होगी? प्रभु ने कहा, 'हे राजन्! तुमने पूर्व में ही नरक का आयुष्य बांध लिया है, इसलिए तू अवश्य ही नरक में जाएगा। क्योंकि पूर्व में जो भी शुभ या अशुभ कर्म बांध लिये हों, वे अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। हम भी उसे अन्यथा करने में समर्थ नहीं हैं। तथापि भावी चौवीसी में तू पद्मनाभ नामक प्रथम तीर्थंकर होगा। इसलिए राजन्! तू जरा भी वृथा खेद मत कर। श्रेणिक बोले'हे नाथ! कोई ऐसा उपाय है क्या, जिससे अंधकूप में से अंधे की तरह नरक में से मेरी रक्षा हो? प्रभु ने फरमाया – 'हे राजन्! कपिला नामकी ब्राह्मणी से यदि साधुओं को हर्ष से भिक्षा दिलाई जाय अथवा यदि कालसौरिक के पास से कसाई का काम बंद करवा दिया जाय तो नरक से तेरी मुक्ति हो सकती है, उसके सिवा नहीं हो सकती। इस प्रकार हार की भांति प्रभु का उपदेश हृदय में धारण करके श्रेणिक प्रभु को वंदन करके अपने स्थान की ओर चल दिये।
(गा. 139 से 146) इसी समय उस दर्दुरांक देव ने श्रेणिक राजा की परीक्षा करने के लिए ढीमर मच्छीधर का जैसा अकार्य करते हुए एक साधु को बताया। “यह देखकर जैन प्रवचन की मलिनता न हो' ऐसा सोचकर उस साधु को अकार्य से
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)