________________
यह क्या किया?' यह बात सुनकर लोग भी उस पर बहुत आक्रोश करने लगे। इस कारण वह वहाँ से भागकर हे राजन्! तेरे नगर में इस प्रकार निराश्रय रूप से आजीविका के लिए घूमता हुआ तेरे द्वारपाल के आश्रय से रहा प्रभु ने फरमाया। इतने में हमारा यहां आगमन हुआ। तब द्वारपाल अपने काम पर उस ब्राह्मण को लगाकर हमारी धर्म देशना सुनने के लिए यहाँ आया। वह विप्र दरवाजे के पास बैठा। वहाँ दुर्गदेवी के समक्ष बलिदान रखा हुआ देख वह अत्यंत क्षुधा का कष्ट होने से उसने मानो जन्म में देखा न हो वैसे बहुत सा खा लिया। पश्चात् आकंठ अन्न भरने के दोष से तथा गीष्मऋतु की गर्मी में उसे अत्यंत तृषा लगी। इससे मरुभूमि के पांथ की तरह वह आकुल व्याकुल हो गया। परंतु उस द्वारपाल के भय से द्वार का स्थान छोड़कर अन्यत्र कहीं भी प्याऊ आदि में पानी पीने जा नहीं सका। उस समय वह जलचर जीवों को वस्तुतः धन्य मानने लगा। अंत में पानी पानी पुकारता हुआ वह ब्राह्मण तृषार्तपने में मर कर इस नगर के द्वार के समीपस्थ बावड़ी में मेंढक हुआ। हम विहार करते करते पुनः भ्रमण करते हुए यहाँ आए। इसलिए लोग संभ्रम से वंदन करने के लिए यहाँ आने लगे। उस वक्त उस वापिका में से जल भरती हुई स्त्रियों के मुख से हमारे आगमन का वृत्तान्त सुनकर उस वापिका में रहा हुआ वह मेंढ़क विचार करने लगा कि 'पूर्व में मैंने ऐसा कहीं सुना है। बारम्बार उसका ऊहापोह करते हुए स्वप्न के स्मरण के समान उसे तत्काल ही जातिस्मरण ज्ञान हो गया। तब वह दर्दुर चिंतन करने लगा कि “पूर्व में द्वार पर मुझे रखकर द्वारपाल जिनको वंदन करने के लिए गया था, वे भगवंत जरूर यहाँ आए होंगे। उनको वंदन के लिए जिस प्रकार ये लोग जा रहे हैं, वैसे मैं भी जाऊं। क्योंकि गंगा नदी सबके लिए समान है, किसी के बाप की नहीं है। ऐसा सोचकर वह दर्दुर हमको वंदन करने के लिए वापिका से बाहर कूदकर निकला। वहाँ से यहाँ आते हुए मार्ग में तुम्हारे घोड़े के खुर से कुचलकर मर गया। परंतु हमारे प्रति भक्तिभाव से मरण होने से वह दर्दुरांक नामक देवता हुआ।" अनुष्ठान बिना भी भावना फलीभूत होती है।"
(गा. 90 से 130) आज ही इंद्र ने सभा में कहा कि 'श्रेणिक जैसा श्रद्धालु कोई श्रावक नहीं है। उस वचन पर श्रद्धा न होने से वह दर्दुरांक देव तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए यहाँ आया था। उसने गोशीर्ष चंदन से मेरे चरण को चर्चित किया था, परन्तु
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
219