________________
बनाया अब इन पुत्रों ने जैसे वाहन समुद्र को छोड़ देता है, वैसे ही मुझे छोड़ दिया है। ये वाणी से मुझे बुलाते भी नहीं है। उल्टे मुझ पर रोष करते हैं। इस प्रकार विचार करके असंतोषी अभव्य के समान वह कुष्टी रोष करने लगा । तब उसने निश्चय किया कि जिस प्रकार ये पुत्र मेरी जुगुप्सा कर रहे हैं, उसी प्रकार ये भी जुगुप्सा करने योग्य हों ऐसा मैं भी करूं । तब उसने अपने पुत्रों को बुलाकर कहा कि हे पुत्रों अब मैं जीवन से उद्विग्न हो गया हूँ । परंतु अपने कुल का ऐसा आचार है कि जो मृत्यु के इच्छुक हो उसे एक अभिमंत्रित पशु देवे । इसलिए मुझे एक पशु ला दो । उसका ऐसा वचन सुनकर पशु के जैसे मंद बुद्धि वाले पुत्रों ने हर्ष से एक पशु उसे ला दिया। बाद में उसने अपने को अंग के ऊपर से मवाद (पस) ले लेकर उसके साथ अन्न मिला मिलाकर उस पशु को खिलाया। जिसके प्रभाव से पशु कुष्टी हो गया । पश्चात् उस ब्राह्मण ने उस पशु को मार कर उसे अपने पुत्रों को खाने को दिया। वे मुग्ध अज्ञानी पुत्र उसके आशय को जाने बिना उसे खा गये । पश्चात् अब मैं तीर्थ यात्रा को जाऊंगा, ऐसा कहकर पुत्रों की इजाजत लेकर अरण्य का शरण लेकर वहाँ से चल पड़ा। मार्ग में अत्यंत तुषार होने पर जल की शोध में घूमने लगा । इतने में विविध वृक्षवाले किसी प्रदेश में मित्र के जैसा एक जल का प्रपात ( झरना) उसे दिखाई दिया । तीर पर वृक्षों से झरता अनेक जाति के पत्र पुष्प और फलों से व्याप्त और दिन में सूर्य की किरणों से तप्त उस जल के वह क्वाथ की भांति पीने लगा। उसने जैसे जैसे तृषा को बुझाने के लिए वह जल पिया, वैसे वैसे कृमियों के साथ रेचन (दस्त) होने लगा। इस प्रकार उस प्रपात का जल पीने से कुछ ही दिनों में वह एकदम निरोगी हो गया एवं वसंतऋतु में वृक्ष की सदृश उसके सर्व अंग पुनः प्रफुल्लित हो गए। आरोग्य प्राप्त होने पर हर्षित होता हुआ वह विप्र अपने घर की ओर चल पड़ा।" पुरुषों को शरीर की आरोग्यता प्राप्त होने पर जन्मभूमि शृंगाररूप होती है ।" कांचली से मुक्त हुए सर्प की भांति देदीप्यमान शरीरवाले उसे नगरजनों ने विस्मित होकर नगर में प्रवेश करते हुए देखा। नगरजन उसे वैसा आरोग्यवान् देखकर पूछते कि अरे! तू मानो पुनर्जन्म हुआ हो वैसा निरोग कैसे हो गया ? तब वह कहता कि देवता की आराधना से हुआ। अनुक्रम से उसने अपने सब पुत्रों को कुष्टी हुआ देखा। तब हर्षित होकर वह बोला कि, “तुमको मेरी अवज्ञा का कितना अच्छा फल मिला है ?” यह सुनकर पुत्र बोले कि, "अरे निर्दय पिता! तुमने द्वेषी के समान हम जैसे विश्वासी पर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
218