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दूसरी स्त्री से शादी कर लेगा। ऐसा विचार करके वह बोली- 'हे नाथ! आपको प्रतिदिन खाने के लिए भोजन और एक सोनामोहर राजा से मांग लेनी।" इस प्रकार उसने अपने पति को समझा दिया। तब उस ब्राह्मण ने उसी प्रकार राजा से मांग की। राजा ने उसे वह दे दिया। “गागर समुद्र में जाए तो भी अपने योग्य उतना ही जल पाता है।"
(गा. 78 से 89) अब प्रतिदिन वह ब्राह्मण उतना लाभ साथ ही सन्मान प्राप्त करने लगा।" पुरुषों को राजा का प्रसाद महार्धपने को विस्तार कराती है।" यह राजा का मानीता है, ऐसा जानकर लोग नित्य उसे आमन्त्रित करते थे। इस प्रकार एक से अधिक आमन्त्रण आ जाने पर वह पहले भोजन कर लेता तो भी दक्षिणा के लोभ से प्रतिदिन पूर्व का खाया वमन करके पुनः अनेक बार भोजन कर लेता था। "ब्राह्मणों के लोभ को धिक्कार है।" विविध दक्षिणा के द्रव्य से वह ब्राह्मण द्रव्य से अत्यधिक बढ़ गया। बड़वाई से बड़ के वृक्ष की भांति पुत्र पौत्रादिक के परिवार से भी खूब वृद्धि को प्राप्त हुआ। परंतु नित्य अजीर्ण के अन्न के वमन से आम (अपक्व) रस ऊंचा होने से उसकी त्वचा दूषित हो गई, इससे वह लाख द्वारा पीपल के वृक्ष जैसा व्याधिग्रस्त हो गया। अनुक्रम से इसके नाक, चरण और हाथ सड़ गये एवं वह कुष्टी हो गया। फिर भी अग्नि की भांति अतृप्त होकर राजा के समक्ष जाकर प्रतिदिन भोजन करता था। एकदा मंत्रियों ने राजा से निवेदन किया कि, हे देव! इस कुष्टी का रोग संपर्क से फैल जाएगा। इसलिए अब उसे भोजन कराना योग्य नहीं है। उसके बहुत से पुत्र निरोगी हैं, अतः अब उनमें से किसी एक को उसकी जगह भोजन कराओ। क्योंकि जब एक प्रतिमा खंडित हो जाती है, तब उसके स्थान पर अन्य प्रतिमा स्थापित की जाती है।" राजा ने उनका कथन मान्य किया। तब मंत्रियों ने उस ब्राह्मण को कहा। उसने उसे मान्य करके अपने स्थान पर अपने पुत्र को स्थापन किया और स्वयं घर पर ही रहा। मधुमक्खी के छत्ते की तरह क्षुद्र मक्षिकाओं के जाल से भरपूर ऐसे उस ब्राह्मण को उसके पुत्रों ने भी घर के बाहर एक झोंपड़ी बांधकर उसमें रखा। उसकी पुत्रवधू जुगुप्सापूर्वक उसे खिलाने जाती और नाक भौंह सिकोड़ कर ग्रीवा टेड़ी करके वे थूकती। घर से बाहर रखे उस ब्राह्मण की आज्ञा भी उसके पुत्र मानते नहीं थे। श्वान की तरह मात्र एक काष्ट के पात्र में उसे भोजन देते थे। एक बार उस ब्राह्मण ने विचार किया कि “मैंने इन पुत्रों को श्रीमंत
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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