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कि इतने में जो अष्टापद पर अपनी लब्धि के द्वारा जाकर वहां जिनेश्वर परमात्मा को वंदन करके एकरात्रि वहाँ रहे, वह उसी भव में सिद्धि को प्राप्त करे।' ऐसा अरिहंत परमात्मा ने देशना में कहा है। इस प्रकार स्वयं को देवताओं ने कहा था वह स्मरण करके, देववाणी की प्रतीति आने से शीघ्र ही गौतम स्वामी ने अष्टापद पर स्थित जिनबिंबों के दर्शन के लिए जाने की इच्छा की। वहाँ भविष्य में तापसों को प्रतिबोध होगा जानकर प्रभु ने गौतम को अष्टापद तीर्थ पर तीर्थंकरों के बिंब को वंदन करने जाने की अनुज्ञा दी। स्वइच्छानुसार आज्ञा मिलने से गौतम हर्षित हुए और चारण लब्धि से वायु सम वेग द्वारा क्षणभर में अष्टापद के समीप में आ पहुँचे। इस समय कौडिन्य, दत्त और सेवाल आदि पंद्रह सौ तपस्वी अष्टापद को मोक्ष का हेतु सुनकर उस गिरि पर आरोहण करने आए थे। उन में से पांचसौ तपस्वी चतुर्थ तप करके आर्द्र कंदादि का पारणा करने पर भी अष्टापद की पहली मेखला तक आए थे। दूसरे पांचसौ तापस छ? तप करके आर्द्र कंदादि का पारणा करने पर भी अष्टापद की दूसरी मेखला तक आए थे। तीसरे पांचसों तापस अट्ठम तप करके सूखे कंदादि का पारणा करने पर भी तीसरी मेखला तक आ पहुँचे थे। वहाँ से ऊपर चढ़ने में अशक्त होने से ये तीन ही समूह पहली, दूसरी और तीसरी मेखला में ही अटक गये थे। वहाँ से उपर चढ़ने में अशक्त होने से वे तीनों ही समूह पहली, दूसरी और तीसरी मेखला में अटक गये थे। इतने में सुवर्ण जैसी कांतिवाले
और पुष्ट आकृतिवाले गौतम को उन्होंने वहाँ आते हुए देखा। उनको देखकर वे परस्पर कहने लगे कि, ‘अपन शरीर में एकदम कृश हो गये हैं, तथापि इससे आगे चढ़ नहीं सकते हैं। तो यह स्थूल शरीर वाले मुनि किस प्रकार चढ़ सकेंगे? इस प्रकार आपस में वार्तालाप कर रहे थे कि इतने में तो गौतम उस महागिरि पर चढ़ गये एवं क्षणभर में तो देव की भांति उन सब से अदृश्य भी हो गये। यह देख वे परस्पर कहने लगे कि, 'इन महर्षि के पास कोई महाशक्ति है। यदि ये वापिस यहाँ आवेंगे, तो अपने शिष्य हो जावेंगे। ऐसा निश्चय करके वे तापस एक ध्यान से बंधु की भांति उनके वापिस आने की राह देखते रहे।
(गा. 180 से 193) यहाँ गौतम स्वामी ने भरतेश्वर ने बंधाए नंदीश्वर द्वीप के चैत्य तुल्य चैत्य में प्रवेश किया, और वहाँ स्थित चौवीस तीर्थंकरों के अनुपम बिंबो को भक्तिभावपूर्वक वंदन किया। वहाँ चैत्य से निकलकर गौतम गणधर एक विशाल
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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