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बात कैसे बताई ? प्रभु ने फरमाया कि- “ध्यान के भेद से उन मुनि की स्थिति दो प्रकार की हो गई । इसलिए मैंने ऐसा कहा । प्रथम दुर्मुख की वाणी से प्रसन्नचंद्र मुनि कुपित हुए थे, और अपने सामंत मंत्री आदि के साथ मन में क्रोधित होकर युद्ध करने लगे थे, जिस समय तुमने उनको वंदन किया था । उस समय वे नरक के प्रायोग्य थे । वहाँ से यहाँ आने के पश्चात् उन्होने मन में विचार किया कि “अब मेरे आयुध तो सब समाप्त हो गये तो मैं शिरस्त्राण (मुकुट) से शत्रु को मांरू, 'ऐसा सोचकर उन्होंने अपना हाथ सिर पर रखा कि अपना सिर लोच किया हुआ जानकर उनको अपने व्रत का स्मरण हुआ । तब तत्काल 'मुझे धिक्कार हो, 'मैं यह क्या अकार्य सोचने लगा ? इस प्रकार वे अपनी आत्मा की निंदा करने लगे और उसकी आलोचना - प्रतिक्रमण करके पुनः प्रशस्त ध्यान में स्थित हुए। इससे तुम्हारे दूसरे प्रश्न के समय वे सर्वार्थसिद्धि योग्य हो गये थे । इस प्रकार वार्तालाप चल रहा था कि इतने में तो प्रसन्नचंद्र ऋषि के समीप में देवदुंदुभि का नाद एवं और जोर शोर से कलकल की आवाजें आने लगी। यह सुनकर श्रेणिक ने प्रभु से पूछा, स्वामी! यह क्या हुआ ? प्रभु ने फरमाया कि “ध्यान में स्थिर हुए प्रसन्नचंद्र मुनि को अभी अभी केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है एवं देवगण उनके केवलज्ञान की महिमा कर रहे है। इससे दुंदुभि के नाद से मिश्रित यह हर्षनाद हो रहा है।
(गा. 21 से 53 )
श्रेणिक पूछ ही रहे
भगवन्! केवलज्ञान का उच्छेद कब होगा ? ऐसा जब थे, कि उसी समय महाकांति वाला विद्युन्माली नामक ब्रह्मदेव लोक के इंद्र का सामानिक देवता अपनी चार देवियों के साथ प्रभु को वंदन करने आया। उसे बताते हुए प्रभु ने कहा कि, इस पुरुष से केवलज्ञान का उच्छेद होगा । अर्थात् यह अंतिम केवली होगा । तब श्रेणिक ने पूछा- क्या देवों को भी केवलज्ञान होता है ? प्रभु ने कहा- 'यह देव आज से सातवें दिन च्यवकर तुम्हारे नगर के निवासी धनाढ्य ऋषभदत्त का पुत्र होगा । वह मेरे शिष्य सुधर्मा का जंबू नामका शिष्य होगा। उसको केवलज्ञान होने के पश्चात् कोई भी केवलज्ञान उपार्जन नहीं कर सकेगा। श्रेणिक ने पूछा कि 'हे नाथ! इस देव का तेज मंद कैसे नहीं हुआ? क्योंकि अंतसमय में देवों का तेज मंद हो जाता है।' प्रभु ने कहा- 'अभी तो इस देव का तेज मंद है, पूर्व में तो इससे भी उत्कृष्ट तेज था । इस प्रकार
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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