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संशय हुआ है।' यह सुनते ही पुत्राल विस्मित हुआ, और उस बात को उसने स्वीकार किया। पश्चात् अपने गुरु की चेष्टित क्रिया गुप्त रखने के लिए वे महर्षि पुनः बोले - 'देख, ये तुम्हारे गुरु जो गा रहे हैं, नाच रहे हैं कर पात्र द्वारा अंजली बद्ध होते हैं, ये सब उनके निर्वाण के चिह्न ज्ञात करा रहे हैं। जो यह उनका सबसे अंतिम गायन, नृत्य, अंजली बद्धता का कर्म, पान और मृत्तिका का अंगराग आदि है, यह सब चौवीसवें तीर्थंकर का निर्वाण चिह्न है। अब उनके पास जाकर तेरा संदेह पूछ ले। क्योंकि ये तेरे सर्वज्ञ गुरु हैं। इस प्रकार उनके कहने से वह पुत्राल गोशाला के पास जाने को तत्पर हुआ। तब उन महर्षियों ने पहले से ही गोशाला को पास जाकर उसका आगमन और उसे जो संशय था, वह बता दिया, साथ ही उन्होंने गोशाला के पास से मद्यपात्र आदि अन्यत्र रखवा दिया और एक आसन पर बिठाया। इतने में पुत्राल भी वहाँ आ गया। वह आगे बैठा, तब गोशाला ने उसे कहा कि 'तृणगोपालिका का संस्थान कैसा हो? यह तेरा संशय है। यह सुन- बांस के मूल जैसी तण गोपालिका की आकृति जानना।' इस प्रकार का उत्तर सुनकर वह पुत्राल हर्षित होकर अपने स्थान पर गया।
(गा. 431 से 442) किसी समय गोशाला ने सावधान होकर अपना अवसान समय जानकर अपने शिष्यों को आदरपूर्वक बुलाकर इस प्रकार कहा कि- “हे शिष्यों! मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरे मृत शरीर को सुगंधित जल से उत्कृष्ट वस्त्र लिपेटना। दिव्य आभूषणों से श्रृंगार करके उसे सहन पुरुषों से ग्राह्य ऐसी शिबिका में आसीन करवा कर उत्सव सहित बाहर निकालना एवं उस समय यह गोशालक वर्तमान अवसर्पिणी के चौबीसवें तीर्थंकर मोक्ष में गए हैं। ऐसी उच्च स्वर में सम्पूर्ण नगर में आघोषण करवाना।'' उन्होंने ऐसा करना स्वीकार किया। तत्पश्चात् सातवें दिन गोशाला का हृदय वास्तव में विशुद्ध हुआ, इससे वह अत्यंत पश्चात्ताप करने लगा। “अहो! मैं कैसा पापी! कैसा दुर्मति! मैंने मेरे धर्मगुरु श्री वीर अर्हन्त प्रभु की मन, वचन, काया से अत्यन्त आशातना की है। मैंने सर्वत्र मेरी आत्मा को मिथ्या सर्वज्ञ कहलाया एवं सत्य जैसे ज्ञात मिथ्या, उपदेश द्वारा सर्व लोगों को छला। अरे मुझे धिक्कार है, मैंने गुरु के दो उत्तम शिष्यों को तेजो लेश्या द्वारा जला डाला। फिर अंत में मेरी आत्मा को दहन करने के लिए मैंने प्रभु के ऊपर तेजोलेश्या फैंकी। मुझे धिक्कार है! अरे! थोड़े दिन के लिए मैंने बहुत काल तक
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)