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के पास है और मेरे पास नहीं हैं, ऐसा क्या है ? वह बता।' दूत बोला- 'हे राजन्! आपके यहाँ चित्रसभा (चित्रशाला) नहीं है।' यह सुनकर राजा ने शीघ्र ही चित्रकारों को आज्ञा दी कि, 'मेरे लिए एक चित्रसभा तैयार करो।' पश्चात् अनेक चित्रकारों ने एकत्रित हो करके चित्रित करने के लिए सभा का एक भाग बांट लिया। उसमें उस युवा चित्रकार के अंतःपुर के नजदीक का प्रदेश भाग में आया। वहाँ चित्रकारी करते हुए उसकी जाली में मृगावती देवी के पैर की अंगूठी सहित अंगूठा उसे दिखाई दिया। इससे ‘यह मृगावती देवी होगी' ऐसा अनुमान करके वह चित्रकार यक्षराज की कृपा से उसका स्वरूप यथार्थ रूप से आलेखित करने लगा। अंत में उसके नेत्रों को चित्रित करते समय उसकी कलम में से रंग की बूंद उसके सांथल पर जा गिरी। तब शीघ्र ही चित्रकार ने उसे पोंछ डाला। किन्तु पुनः उसी स्थान पर रंग की बिंदु गिरी, तब पुनः उसे उसने मिटा दिया। पुनः तीसरी बार वहाँ टपका गिरा हुआ यह देखकर चित्रकार ने सोचा कि 'अवश्य ही उस स्त्री के उरुप्रदेश में ऐसा लांछन होगा 'तो यह लंछन क्यों न रहे? अतः इसे पोंछने का कोई अर्थ नहीं। पश्चात् मृगावती का चित्र पूर्णरूपेण आलेखित कर दिया। इतने में चित्रकारी का कार्य देखने हेतु राजा वहाँ आए। अनुक्रम से देखते देखते मृगावती का स्वरूप उसे दिखाई दिया। उस समय सांथल पर लंछन किया हुआ दृष्टिगत हुआ। तब राजा ने क्रोध से सोचा कि, 'जरूर इस पापी ने मेरी पत्नि को भ्रष्ट किया लगता है, अन्यथा वस्त्र में रहा यह लांछन उसे किस प्रकार ज्ञात हो!' कोप से उसका वह दोष प्रगट करके राजा ने निग्रह करने हेतु उसे रक्षकों के स्वाधीन कर दिया। उस समय अन्य चित्रकारों ने एकत्रित होकर राजा से कहा 'हे स्वामी! यह चित्रकार किसी यक्ष देव के प्रभाव से एक अंश देखकर सम्पूर्ण स्वरूप को यथावत् चित्रित कर सकता है, इसलिए इसमें उसका कोई अपराध नहीं है।' उनके ऐसे वचनों से क्षुद्र चित्तवाले राजा ने उस उत्तम चित्रकार की परीक्षा करने के लिए एक कुबडी दासी का मात्र मुख ही बताया। उससे उस चतुर चित्रकार ने उसका यथार्थ स्वरूप आलेखित कर बताया। यह देखकर विश्वास होने पर भी ईर्षा के वशीभूत होकर क्रोधित हुए उस चित्रकार के दक्षिण (जीमने) हाथ का अंगूठा उसने कटवा डाला।
(गा. 132 से 146) उस चित्रकार ने उस यक्ष के पास जाकर उपवास किया, तब उस यक्ष ने उसे कहा कि 'तु वाम हस्त से भी वैसा ही चित्र बना सकेगा। यक्ष ने ऐसा
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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