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भगवंत की देशना श्रवण करके प्रतिबोध को प्राप्त हए। जमालि ने माता पिता की आज्ञा लेकर पांच सौ क्षत्रियों के साथ दीक्षा ग्रहण की। जामलि की स्त्री और भगवंत की पुत्री प्रियदर्शना ने भी एक हजार स्त्रियों के साथ प्रभु के पास दीक्षा ली। अनुक्रम से जमालि मुनि ने ग्यारह अंग का अध्ययन किया, तब प्रभु ने उनको सहस्रक्षत्रिय मुनियों के आचार्य नियुक्त किये। उन्होंने चतुर्थ, छठ एवं अट्ठम आदि तपश्चर्या की। इसी प्रकार चंदना को अनुसरती प्रियदर्शना ने भी तप प्रारंभ किया।
__(गा. 28 से 37) एक बार जमालि ने अपने परिवार सहित प्रभु को नमन करके पूछा, 'स्वामी! आपकी आज्ञा हो तो हम अब अनियत विहार करें।' प्रभु ने ज्ञानचक्षु द्वारा इसमें भावी अनर्थ जाना, इसलिए जमालि मुनि ने बारम्बार पूछा, तथापि प्रभु ने कोई उत्तर दिया नहीं। तब 'जिसमें निषेध न हो उसे आज्ञा समझना' ऐसा विचार करके जमालि मुनि परिवार सहित अन्यत्र विहार करने प्रभु के पास से निकले। अनुक्रम से विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आए। वहाँ कोष्टक नामक नगर के बाहर उद्यान में विरस, शीतल, लूखा, तुच्छ, समय बिना के एवं ठंडे अन्नपान करने से किसी समय जमालि मुनि को पित्तज्वर हो गया। इस ज्वर की पीड़ा से कीचड़ में पड़ी कील के सामन वे खड़े भी नहीं रह सकते थे। इससे अपने साथ के मुनियों से कहा कि 'संथारा कर दो।' मुनियों ने तुरंत ही संथारा करना प्रारंभ कर दिया। “राजा की आज्ञा सेवक माने वैसे ही शिष्य गुरु की आज्ञा पालन करते हैं। पित्त की अत्यन्त पीड़ा से जमालिमुनि बार बार पूछने लगे कि, 'अरे साधुओं! संथारा बिछाया या नहीं? साधुओं ने कहा कि संथारा किया हुआ है। तब ज्वारात जमालिमुनि शीघ्र ही उठकर उनके पास आए, वहाँ संथारा बिछाते देख शरीर की अशक्ति के कारण वे बैठ गए एवं तत्काल मिथ्यात्व के उदय होने से क्रोधित होकर बोले- “अरे साधुओ! अपन बहुत काल से भ्रांत हो रहे हैं। अब चिरकाल में तत्त्व जानने में आया कि जो कार्य किया जा रहा हो उसे ‘किया' यह कहा नहीं जाता, जो कार्य पूर्ण हो गया हो उसे ही किया कहा जाय। संथारा बिछा जा रहा था, फिर भी तुमने बिछाया यह जो कहा वह असत्य है और ऐसा असत्य बोलना अयुक्त है। उत्पन्न होता हो उसे उत्पन्न हुआ कहना और किया जा रहा हो उसे किया कहना ऐसा जो अरिहंत प्रभु कहते हैं, वह अयुक्त है। कारण कि उसमें प्रत्यक्ष विरोध
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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