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प्रतिबोधित करना दुष्कर है।' ऐसी बुद्धि से भगवंत ने उनको अन्य लोगों को उद्देश करके इस प्रकार की देशना दी।
(गा. 1 से 14) “अहो भव्यजीवों! इस संसार में वस्तु इंद्रजाल जैसी है, इसलिए विवेकी पुरुष उसके स्थिरपने के विषय में क्षणभर भी श्रद्धा रखते नहीं हैं। जब तक जरावस्था आकर इस शरीर को जर्जरित नहीं करती, और जब तक मृत्यु प्राणों को लेने नहीं आती है, तब तक अद्वैत सुख के निधान रूप निर्वाण के एक साधन जैसी दीक्षा का आश्रय कर लेना योग्य है, उसमें किंचित्मात्र भी प्रमाद करना युक्त नहीं है।" इस प्रकार प्रभु की देशना श्रवण करके देवानंदा और ऋषभदत्त प्रभु को नमन करके बोले कि, “हे स्वामी! हम दोनों को इस असार संसारतारिणी दीक्षा दो। आपके सिवा तिरने और तारने में अन्य कौन समर्थ है ?' प्रभु ने तथास्तु इस प्रकार कहा। तब आत्मा को धन्य मानते हुए उन दम्पत्ती ने ईशान दिशा में जाकर आभूषण आदि त्याग दिये, और संवेग से पांचमुष्ठि द्वारा केश का लोच करके प्रभु को प्रदक्षिणापूर्वक वंदन करके बोले कि “हे स्वामी! हम जन्म, जरा और मृत्यु से भयभीत होकर आपकी शरण में आए हैं। अतः आप स्वयं ही हम पर प्रसन्न होकर दीक्षा देकर अनुग्रह करो। सर्व सत्पुरूष उपकारी होते है। तो फिर सर्व कृतज्ञ पुरुषों में शिरोमणि प्रभु की बात ही क्या करनी?" प्रभु ने चंदना साध्वी को देवानंदा और स्थविर साधुओं को ऋषभदत्त को सौंप दिया। दोनों ही परम आनंद से व्रत का पालन करने लगे। अनुक्रम से उनने एकादशांगी का अध्ययन करके विविध तप में तत्पर होकर केवलज्ञानी होकर मोक्षपद को प्राप्त किया।
(गा. 15 से 27) भगवंत श्री वर्धमान स्वामी जगत्जीवों के आनंद में वृद्धि करते हुए ग्राम आकर और नगर से आकुल ऐसी पृथ्वी पर विहार करने लगे। अनुक्रम से प्रभु क्षत्रियकुंड गांव में पधारे। वहाँ समवसरण में विराजमान होकर देशना दी। प्रभु को समवसृत जान कर, राजा नंदिवर्धन विपुल समृद्धि एव भक्ति से प्रभु को वंदन करने को आए। तीन प्रदक्षिणा करके जगद्गुरु को वंदन करके अंजलीबद्ध होकर योग्य स्थान पर बैठे। उस समय जमालि नाम से प्रभु का भगिनेय (भाणजा) एवं जमाता, प्रभु की पुत्री प्रियदर्शना सहित वंदन करने आये।
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)