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अष्टम सर्ग श्री ऋषभदत्त और देवानंदा की दीक्षा, जमालि और गोशाले की विप्रतिपत्ति तथा विपत्ति एवं
श्री महावीर प्रभु का आरोग्य
भविजन के अनुग्रह के लिए गांव, आकर और नगरादि में विचरण करते हुए श्री वीरप्रभु किसी समय ब्राह्मणकुंड गाँव में आये। उसके बाहर बहुशाल नामक उद्यान में देवताओं ने तीन गढ़वाला समवसरण रचा। उसमें प्रभु पूर्व सिंहासन पर पूर्वाभिमुख विराजमान हुए। गौतम आदि गणधर और देवतागण अपने अपने योग्य स्थान पर बैठे। सर्वज्ञ प्रभु को आया श्रवण कर अनेक नगर जन वहाँ आये। उनके साथ देवानंदा और ऋषभदत्त भी आये। श्रद्धालु ऋषभदत्त प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर वंदन करके योग्य स्थान पर बैठे। देवानंदा भी प्रभु को नमन करके ऋषभदत्त के पीछे आनंद प्रफुल्लित मुख द्वारा देशना श्रवण करने बैठी। उस समय प्रभु को देखते ही देवानंदा के स्तन में से दूध झरने लगा एवं शरीर में रोमाञ्च प्रकट हुआ। उसकी ऐसी स्थिति देखकर गौतम स्वामी को संशय और विस्मय हुआ। तब उन्होंने अंजलिबद्ध होकर प्रभु को पूछा कि, 'हे प्रभु! पुत्र की भांति आपको देखकर इस देवानंदा की दृष्टि देववधू के समान निर्निमेष कैसे हो गई ? भगवान् श्री वीरप्रभु ने मेघ के तुल्य गंभीर वाणी से फरमाया- 'हे देवानुप्रिय गौतम! मैं इस देवानंदा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ था। देवलोक से च्यवकर मैं इसकी कुक्षि में बियासी दिन रहा था। परमार्थ को न जानते हुए इस विषय में वह मुझ पर वत्सल भाव धारण करती है।' प्रभु के इस प्रकार के वचनों को जो कि पूर्व में सुनने में आये नहीं थे, यह सुनकर देवानंदा, ऋषभदत्त एवं सर्व पर्षदा विस्मित हो गई। ये तीन जगत् के स्वामी अपने पुत्र कहाँ और एक समान्य गृहस्थाश्रमी अपने कहाँ ? ऐसा विचार करके उन दंपत्ती ने उठकर पुनः प्रभु को वंदना की। ‘इन माता पिता को
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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