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कि- 'हे भगवन्! आपके द्वारा हुए गजेन्द्र के मोक्ष से मुझे आश्चर्य होता है। तब महर्षि बोले कि, “हे राजेन्द्र! गजेन्द्र का मोक्ष होना मुझे दुष्कर नहीं लगता जितना कि चरखे के पाश के मुक्त होना दुष्कर लगा। राजा ने पूछा- यह किस प्रकार? तब मुनि ने चरखे के सूत संबंधी सर्व कथा कह सुनाई। जो श्रवण करके राजा और सब लोग विस्मित हो गए।
(गा. 345 से 349) तब आर्द्रकमुनि ने अभयकुमार को कहा कि 'हे भद्र! तुम तो मेरे निष्कारण उपकारी धर्मबंधु हो। हे राजपुत्र! तुम्हारे द्वारा प्रेषित अर्हन्त की प्रतिमा के दर्शन से मुझे जातिस्मरण ज्ञान हुआ और हे भद्र! तुमने मुझे क्या नहीं दिया? और क्या क्या उपकार नहीं किया? कि जिसने मुझे उत्तम उपाय की योजना करके आर्हत धर्म में प्रवृत्ताया। हे महापरमोपकारी। तुमने अनार्य रूप महाकीचड़ में निमग्न हुए मेरा उद्धार किया, और आपकी बुद्धि से बोध प्राप्त कर मैं आर्य देश में आया। साथ ही तुमसे ही प्रतिबोध प्राप्त करके मैंने दीक्षा भी ली। इससे हे कुमार! तुम अत्यन्त कल्याण द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो।" राजाश्रेणिक, अभयकुमार एवं अन्य लोग उन मुनि को वंदना करके अपने अपने स्थान पर गये। आर्द्रकमुनि ने राजगृह नगर में समवसरे श्री वीरप्रभु को वंदना करके और उनके चरणकमल की सेवा से कृतार्थ होकर प्रांते मोक्ष में गये।
(गा. 3 50 से 356) दशम पर्व में चेलणा योग्य एक स्तंभ प्रसाद निर्माण आम्रफलापहार, श्रेणिक विद्याग्रहण दुर्गन्धा कथा, आर्द्रकुमार कथा-वर्णन नामक सप्तम सर्गः।
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)