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इस चरखे का ही शरण है।' पुत्र बालपने के कारण तोतली परंतु मधुर वाणी से बोला कि 'माता! मैं मेरे पिता को बांधकर पकड़ कर रखूगा, तो ये किस प्रकार जा सकेंगे? इस प्रकार कहकर लार से मकड़ी के समान वह मुग्धमुख बालक चरखे के सूत्र से पिता के चरणों को लपेटने लगा और बोला कि'अंबा! अब भय मत रखो, स्वस्थ हो जाओ। देखो मेरे पिता के पैरों को मैंने बांध दिया है। बंधे हुए हाथी के समान अब ये किस प्रकार जा सकेंगे? बालक की इस प्रकार की चेष्ठा को देखकर आर्द्रक ने विचार किया कि 'अहो! इस बालक का स्नेहानुबंध कैसा है कि, जो मेरे मन रूपी पक्षी को पाश रूप हो गया है। इससे मैं तुरंत ही दीक्षा लेने में असमर्थ हो गया हूँ। इसलिए इस प्रेमाल बालक ने मेरे पैरों के साथ जितने सूत के आंटे लिये हैं, उतने वर्ष तक इस पुत्र के प्रेम से मैं गृहस्थपन में रहूँगा।' तब उन्होंने पैर के तंतुबंध गिने, तो बारह निकले। इससे उन्होंने गृहस्थपने में दूसरे बाहर वर्ष व्यतीत किये। जब अपनी प्रतिज्ञा की अवधि पूर्ण हुई, तब वे बुद्धिमान पुरुष वैराग्य प्राप्त करके रात्रि के अंतिम प्रहर में चिंतन करने लगे कि अहो! इस संसार रूपी कुए में से निकलने के लिए मैंने डोरी के समान व्रत का आलंबन लिया और पुनः उसे छोड़ कर मैं उसमें ही मग्न हो गया। पूर्वजन्म में तो मात्र मैंने मन से ही व्रतभंग किया था, फलस्वरूप मुझे अनार्यत्व प्राप्त हुआ परंतु अब तो इस भव में त्रिकरण से व्रतभंग किया हैं, अब मेरी क्या गति होगी? भवतु! अब भी दीक्षा लेकर तपरूप अग्नि से अग्निशौच वस्त्र की तरह मैं मेरी आत्मा का प्रक्षालन करूँगा। ऐसा विचार करके प्रातः श्रीमती को समझाकर यतिलिंग धारण करके वे निर्मम मुनि होकर घर से चल पड़े।
(गा. 294 से 310) वसंतपुर से राजगृह नगर की ओर जाते हुए मार्ग में अपने पांचसौ सामंतो को चोरी का धंधा करते हुए देखा। उन्होंने पहचान करके भक्ति से आर्द्रकमुनि को वंदना की। मुनि ने कहा, तुम लोगों ने यह पापी आजीविका क्यों ग्रहण की ? वे बोले कि, “हे स्वामी! जब आप हमको ठगकर पलायन कर गये, तब हम लज्जा से अपना मुख आपके पिता को बता न सके। तब आपकी ही शोध में हम पृथ्वी पर घूमने लगे और चोरी द्वारा आजीविका करने लगे। निर्धन शस्त्रधारियों को दूसरा क्या करना? मुनि बोले- हे भद्रों! कभी सिर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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